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________________ ४२९ सप्तविंशस्तम्भः। 'त्रैलोक्यपूजितः' स्वर्गमर्त्यपातालके स्वामी इंद्रादिक परम भक्तिकरके जिसको वांदे, पूजे, नमस्कार करे, सेवे, सो देव कहिये. परंतु कितनेक इस लोकके अर्थीयोंके वांदनेसें, वा पूजनादिकसे देवपणा नही होवे है.। तथा ' यथास्थितार्थवादी' जो यथास्थित सत्यपदार्थका वक्ता, सो देव कहिये, परंतु जिसका कथन पूर्वापरविरोधि होवे, और विचारते हुए सत्य २ मिले नही, सो देव न कहिये. ॥ देवोर्हन् परमेश्वरः ॥ येह पूर्वोक्त चार गुण पूर्ण जिसमें होवे, सो अरिहंत, वीतराग, परमेश्वर, देव, कहिये. इससे अन्य कोइ देव नहीं है. ॥३॥ ऐसा पूर्वोक्त साचा देव, पिछाणके आराधना, सोही कहते हैं। ध्यातव्योयमित्यादि-पूर्वे जे देवके लक्षण कहे, तिन लक्षणोंकरी संयुक्त जो देव, तिसको एकाग्र मन करी ध्यावना, जैसें श्रेणिक महाराजने श्रीमहावीरजीका ध्यान किया.। तिस ध्यानके प्रभावसें आगामी चउवीसीमें श्रेणिक महाराज, वर्ण, प्रमाण, संस्थान, अतिशयादिकगुणोंकरके श्रीमहावीरस्वामिसरिषा 'पद्मनाभ,' इस नामकरके प्रथम तीर्थकर होगा. इसीतरें औरोने भी तल्लीनपणे देवका ध्यान करना, तथा 'उपास्योयम्' ऐसे पूर्वोक्त देवकी सेवा करनी श्रेणिकादिवत् । तथा इसी देवका, संसारके भयको टालनहार जाणके, शरण वांछना.। इसी देवका शासन, मत, आज्ञा, धर्म, अंगीकार करना. । 'चेतनास्ति चेत् ' जो कोइ चेतना चैतन्यपणा है तो, सचेतन सजाण जीवको उपदेश दिया सार्थक होवे, परंतु अचेतन अजाणको दिया उपदेश क्या काम आवे ? इसवास्ते ' चेतनास्ति चेत् ' ऐसें कहा. ॥ ४ ॥ __ अथादेवत्वमाह ॥अथ देवके लक्षण कहते है.॥ ये स्त्री० जिनके पास स्त्री (कलत्र) होवे तथा खङ्ग धनुष्य चक्र त्रिशूलादिक शस्त्र (हथियार) होवे, तथा अक्षसूत्र जपमाला आदि शब्दसे कमंडलुप्रमुख होवे, येह कैलें है ? रा• रागादिकके अंक-चिन्ह है, सोही दिखावे हैं. स्त्री रागका चिन्ह है, । जो पासे स्त्री होवे तो जाणना कि, इसमें राग है. । शस्त्र द्वेषका चिन्ह है, जो पासे हथियार देखीए तो, ऐसा जाणिये कि तिसने किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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