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________________ ४२८ तत्त्वनिर्णयप्रासाद सत्य विषयको जाणता हुआ भी झूठे पक्षका कदाग्रह, ग्रहण करे, जात्यादि अभिमानसें कहना, न माने, उलटी स्वकपोलकल्पित कुयुक्तियों बनाकरके अपने मनमाने मतको सिद्ध करे, वादमें हार जावे तो भी न माने, ऐसा जीव, अतिपापी, और बहुल संसारी होता है. ऐसा मिथ्यात्व, प्रायः जो जैनी, जैन मतको विपरीतकथन करता है, उसमें होता है, गोष्ठमाहिलादिवत् ॥ ( ४ ) चौथा सांशयिकमिथ्यात्व, सो देव गुरु धर्म जीव काल पुगलादिक पदार्थों में यह सत्य है कि, यह सत्य है ? ऐसी बुद्धि, तिसको सांशयिकमिथ्यात्व कहते हैं. यथा क्या वह जीव असंख्य प्रदेशी है ? वा नही है? इसतरें जिनोक्त सर्व पदार्थमें शंका करनी । “सांशयिकं मिथ्यात्वं तदशेषया शंका संदेहो जिनोक्ततत्त्वेष्वितिवचनात् ॥ " (५) पांचमा अनाभोगिकमिध्यात्व, सो जिन जिवोंको उपयोग नही कि, धर्म अधर्म क्या वस्तु है ? ऐसें जे एकेंद्रियादि विशेषचैतन्यरहित जीव, तिनको अनाभोगमिथ्यात्व होता है. ॥ २॥ गजानन अथदेवलक्षणमाह || देव सो कहिये, जो सर्वज्ञ होवे, परंतु जैसें लौकिक मतमें विनायकका मस्तक ईश्वरने छेदन कर दिया, पीछे पार्वती आग्रह सर्वत्र देखने लगा, परं किसी जगे भी मस्तक न देखा, तब हाथी के मस्तकको ल्यायके विनायकके मस्तकके स्थानपर चेप दिया, जिसवास्ते विनायकका ( गणेशका ) नाम " प्रसिद्ध हुआ. इत्यादि - यदि ईश्वर (महादेव) सर्वज्ञ होवे तो, पार्वतीका पुत्र जाणके विनायकका मस्तक कभी न छेदन करे. यदि छेदे, तो जगत् में विद्य मान तिस मस्तकको क्यों न देखे ? इसवास्ते ऐसें अधूरेज्ञानवालेको देव न कहिये । तथा ' जितरागादिदोषः ' जे संसारके मूलकारण राग द्वेष काम क्रोध लोभ मोहादिक दोष, तिन सर्वको जिसने जीते हैं, निर्मूल किये हैं, तिसको देव कहिये. जिसमें रागादि दोष होवे, तिसको अमवाविवत् संसारी जीवही कहिये, तिसमें देवपणा न होवे । तथा Jain Education International 66 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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