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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
यत उक्तमागमे ॥
धम्मरयणस्स जुग्गो अक्खुद्दो रूववं पगईसोमो ॥ लोअप्पर अकूरो भीरू असढो सुदक्खिणो ॥ १ ॥ लज्जालुओ दयालु मन्भच्छो सोमदिट्ठी गुणरागी ॥ सक्कह सपक्खजुत्ता सुदीदहंसी विसेस ॥ २ ॥ बागो विणीओ कयन्नओ परहिअच्छकारीअ ॥ तहचैव लद्दलक्खो इगवीसगुणो हवइ सहो ॥ २॥
अर्थः- अक्षुद्र १, रूपवान् २, प्रकृतिसौम्य ३, लोकप्रिय ४, अक्रूरचित्त ५, भीरु ६, अशठ ७, सुदाक्षिण्य ८, लजालु ९, दयालु १० मध्यस्थ सोमदृष्टि ११, गुणरागी १२, सत्कथी १२, सुपक्षयुक्त १४, सुदीर्घदर्शी १५, विशेषज्ञ १६, वृद्धानुग १७ विनीत १८, कृतज्ञ १९, परहितार्थकारी २०, और लब्धलक्ष २१, इन इक्कीस गुणोंवाला श्रावक धर्मरत्नके योग्य होता है; अर्थात् इक्कीस गुण जिस जीव में होवे, अथवा प्रायः नवीन उपार्जन करे, तिस जीवमें उत्कृष्ट योग्यता जाननी और थोडेसें थोडे इक्कीस गुणोंमेंसें चाहो कोइ दश गुण जीवमें होवे, तिसको जघन्य योग्यतावाला जानना, ११-१२ -१३–१४–१५–१६-१७ - १८ - १९-२० शेष गुणवालेको मध्यमयोग्यताबाला जानना इन इक्कीस गुणोंका विस्तारसहित वर्णन अज्ञानतिमिभास्करके द्वितीय खंडके ४६ पृष्ठसे लेके ८३ पृष्टपर्यंत हमने लिखा है, इसवास्ते इहां नही लिखते हैं.
योगशास्त्रे श्री हेमचंद्राचार्योक्तिर्यथा ॥
न्यायसंपन्नविभवः शिष्टाचारप्रशंसकः ॥ कुलशीलसमैः सार्द्धं कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः ॥ १ ॥ पापभीरुः प्रसिद्धं च देशाचारं समाचरन् ॥ अवर्णवादी न कापि राजादिषु विशेषतः ॥ २ ॥ अनतिव्यक्तगुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेश्मिके ॥
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