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सप्तविंशस्तम्भः।
४०९ प्रत्येकके आठ २ भेद हैं; एवं २४, और तपके द्वादश १२ भेद हैं, ऐसें आचार्यके छत्तीस गुण होते हैं।
अथवा आचारादि आठ ८, और दश प्रकारका स्थितकल्प १० द्वादश १२ तप, और षडावश्यक ६, येह छत्तीस गुण आचार्यके हैं. । *
अथवा संविग्न होवे १, मध्यस्थ होवे २, शांत होवे ३, मृदु-कोमलस्वभाववाला होवे ४, सरल होवे ५, पंडित होवे ६, सुसंतुष्ट होवे ७, गीतार्थ होवे ८, कृतयोगी होवे ९, श्रोताके भावको जाननेवाला होवे १०, व्याख्यानादिलब्धिसंपन्न होवे ११, उपदेशदेने में निपुण होवे १२, आदेयवचन होवे १३, मतिमान् होवे १४, विज्ञानी होवे १५, निरुपपाति होवे १६. नैमित्तिक होवे १७, शरीरका बालिष्ठ होवे १८, उपकारी होवे १९, धारणाशक्तिवाला होवे २०, बहुत कुछ जिसने देखा होवे २१, नैगमादि नयमतमें निपुण होवे २२, प्रियवचनवाला होवे २३, अच्छे मधुर गंभीर स्वरवाला होवे २४, तप करणेमें रक्त होवे २५, सुंदर शरीरवाला होवे २६, शुभ भली प्रतिभावाला होवे २७, वादीयोंको जीतनेवाला होवे २८, परिषदादिको आनंदकारक होवे २९, शुचि-पवित्र होवे ३०, गंभीर होवे ३१, अनुवर्ती होवे ३२, अंगीकार करेका पालनेवाला होवे ३३, स्थिरचित्तवाला होवे ३४, धीर होवे ३५, उचितका जाननेवाला होवे ३६, येह पूर्वोक्त ३६, गुण आचार्यके सूत्रमें कहे हैं.॥
ऐसें पितापरंपरायसें माने गुरुके प्राप्त हुए, वा, तिसके अभावमें पूर्वोक्त गुणयुक्त अन्यगच्छीय गुकि प्राप्त हुए, गृहस्थको व्रतारोपविधि योग्य है, सो विधि यह है. ॥ चतुर्दश संस्कारोंकरके संस्कृत ऐसा गृहस्थी गृहस्थधर्मको अंगीकार करने योग्य होता है. ।
* आचारसंपत् १ श्रुतसंपत् २ शरीरसंपत् ३ वचनसंपत् ४ वाचनासंपत् ५ मतिसंपत् ६ प्रयोगमतिसंपत् ७ संग्रहपरिज्ञासंपत् ८ इत्याचारसंपदादि अष्ट । और दशप्रकारका स्थित कल्प तथाहि आचेलक्य १
औदोशिक २ शय्यातरपिंड ३ राजपिंड ४ कृतिकर्म ५ व्रत ६ ज्येष्ठरत्नाधिकपणा ७ प्रतिक्रमण ८ मासकल्प ९ पर्वृषणाकल्प १० येह दशप्रकारका स्थित कल्प जैन मतमें प्रायः प्रसिद्ध हैं.॥
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