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________________ सप्तविंशस्तम्भः । अनेकनिर्गमद्वारविवज्र्जितनिकेतनः ॥ ३ ॥ कृतसंगः सदाचारैर्मातापित्रोश्च पूजकः ॥ त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्तिते ॥ ४ ॥ व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः ॥ अष्टविधागुणैर्युक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहं ॥ ५ ॥ अजीर्णे भोजनत्यागी काले भोक्ता च साम्यतः ॥ अन्योन्याप्रतिबंधेन त्रिवर्गमपि साधयन् ॥ ६ ॥ यथावदति साधौ दीने च प्रतिपत्तिकृत् ॥ सदानभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥ ७ ॥ अदेशाकालयोश्चर्यं त्यजन् जानन्बलावलं ॥ वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां पूजकः पोष्यपोषकः ॥ ८ ॥ दीर्घदर्शी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः ॥ सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकर्मठः ॥ ९॥ अंतरंगारिषड्वर्गपरिहारपरायणः ॥ वशीकृतेंद्रियग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ॥ १० ॥ अर्थः--न्यायसें धन उपार्जन करनेवाला, शिष्टाचार की प्रशंसा करनेवाला, जिनका कुलशील अपने समान होवे, ऐने अन्य गोत्रवालेके साथ विवाह किया है जिसने पापसें डरनेवाला, प्रसिद्ध देशाचारको करनेवाला, अर्थात् देशाचारका उल्लंघन नही करनेवाला, किसी जगे भी अवर्णवाद नही बोलनेवाला, राजादिकोंमें विशेषसें अवर्णवाद वर्ज - नेवाला; । अतिप्रकट, वा अति गुप्त स्थानमें नही रहनेवाला, अच्छा पाडोसी होवे तिस घर में रहनेवाला, जिस मकान के अनेक आनेजानेके रस्ते होवें तिस घरको वर्जनेवाला; । सदाचारोंसें संग करनेवाला, मातापिताकी पूजा भक्ति करनेवाला, उपद्रवसंयुक्त स्थानको त्यागनेवाला, Jain Education International ४११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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