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________________ षड्विंशस्तम्भः। नतप्राणतारणाच्युतौवेयकानुत्तरभवान् वैमानिकान् इंद्रसामानिकपार्षद्यत्रायस्त्रिंशलोकपालानीकप्रकीर्णकलौकांतिकाभियोगिकभेदभिन्नांश्चतुर्णिकायानपि सभार्यान् सायुधबलवाहनान् स्वस्वोपलक्षितचिह्नान् अप्सरसश्च परिगृहितापरिगृहितभेदभिन्नाः ससखिकाः सदासिकाः साभरणा रुचकवासिनीदिक्कुमरिकाश्च सर्वाःसमुद्रनदीगिर्याकरवनदेवतास्तदेतान् सर्वान् सर्वाश्व इदमयं पाद्यमाचमनीयं बलिं चरुं हुतं न्यस्तं ग्राहय २ स्वयं गृहाण २ स्वाहा अह ॐ॥" तदपीछे अच्छीतरें हुत करके प्रदीप्त अग्निके हुए, गृह्यगुरू, तहांसें उठके दक्षिणपासे स्थित हुई वधूके सन्मुख बैठके, ऐसा कहे. ॥ “॥ॐ अहं इदमासनमध्यासीनौ स्वध्यासीनौ स्थितौ सुस्थितौ तदस्तु वां सनातनः संगमः अर्ह ॐ ॥” । ऐसें कहके कुशाग्रतीर्थोदककरके दोनोंको सींचन करे.। पीछे वधूका पितामह, वा पिता, वा चाचा, वा भाइ वा मातामह, वा कुलज्येष्ठ, धर्मानुष्ठान करके उचित वेषवाला, वधूवरके आगे बैठे.। शांतिक पौष्टिकलें आरंभके विवाहसें मासपर्यंत, मंगलगान, वादित्रवादन, भोजन तांबूल वस्त्र सामग्री, सदैव गवेसीये हैं. ॥ तदपीछे गृह्यगुरु ॥ ___“॥ॐ नमोर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः॥" ऐसें कहके, प्रथम अक्षतपूर्ण हाथवाला होके वधूवरके आगे ऐसा कहे.॥ “विदितं वां गोत्रं संबंधकरणेनैव ततःप्रकाश्यतां जनाग्रतः” जाना है तुमारा गोत्र, संबंध करनेसेंही; तिसवास्ते प्रकाश करो, लोकोंके आगे. । तब प्रथम वरके पक्षीय, अपने गोत्र, अपनी प्रवर, ज्ञाति और अपने अन्वय-वंशको प्रकाश करे, । पीछे वरकी माताके पक्षीय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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