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षड्विंशस्तम्भः।
રૂ૮૭ प्रथम ब्रायविवाहविधि लिखते हैं. । शुभ दिनमें, शुभ लग्नमें, पूर्वोक्त गुणसंयुक्त वरको बुलवाके स्नान अलंकार करके संयुक्त हुए तिस वरकेताइ, अलंकृत कन्या देवे। मंत्रो यथा ॥ "॥ॐ अर्ह सर्वगुणाय सर्वविद्याय सर्वसुखाय सर्वपूजिताय सर्वशोभनाय तुभ्यं वस्त्रगंधमाल्यालंकारालंकृतां कन्यां ददामि प्रतिगृह्णीष्व भद्रं भव ते अर्ह ॐ ॥"
इस मंत्रकरके बद्धांचलदंपती-स्त्रीभर्ता, अपने घरमें जावे. ॥ इति धार्यो ब्रायविवाहः ॥ १॥
प्राजापत्य विवाह जगत्में प्रसिद्ध है, इसवास्ते विस्तारसे कहेगें. ॥२॥
आर्ष विवाहमें वनमें रहनेवाले मुनि, ऋषि, गृहस्थ अपनी पुत्रीको, अन्यऋषिके पुत्रकेतांइ, गौ बैलके साथ देते हैं. तहां अन्य कोइ उत्सवादि नहीं होते हैं, इस विवाहका मंत्र जैनवेदोंमें नहीं है. जैन वेदकरके वर्णादिको आश्रित हुए जनोंके आचार कथन करनेसें, जैनोंको ऐसे विवाहके अकृत्य होनेसें.। दैवतविवाहमें भी ऐसेंही जाणना.। इन दोनों विवाहोंके मंत्र परसमयसें जाणने.॥ इति धार्म्य आर्षविवाहः॥३॥ . दैवत विवाहमें तो, पिता, अपने पुरोहितकेतांइ इष्ट पूर्त कर्मके अंतमें अपनी कन्याको दक्षिणाकीतरें देवे. ॥ इति दैवतो धार्म्य विवाहः ॥ ४॥
ये चार धार्म्यविवाह हैं. ॥ पितादिके प्रमाणविना, अन्योन्यप्रीतिकरके जो उद्यम होना, सो गांधर्वविवाह.।१। पणबंधके विवाह करना, सो आसुरविवाह. ॥ २॥ हठसे कन्याको ग्रहण करे, सो राक्षसविवाह. ॥ ३॥
सुप्त, और प्रमत्तकन्याको ग्रहण करनेसें, पैशाच विवाह कहा जाता है.॥ ४॥ माता, पिता, गुरु, आदिकी आज्ञा न होनेसें इन चारों विवाहोंको विवाहज्ञ पुरुष पापविवाह कहते हैं. ॥ तथा ब्राहय १, आर्ष २, और दैवत ३,
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