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पशिस्तम्भः। आहार वस्त्र पात्र पुस्तक दान देवे. । इत्याचार्यश्रीवर्द्धमानसूरिकृताचा. रदिनकरस्यग्रहिधर्मप्रतिबद्धविद्यारंभसंस्कारकीर्तननामत्रयोदशमोदयस्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूरिकृतोबालावबोधस्समाप्तस्तत्समाप्तौ च समाप्तोयं पंचविंशस्तम्भः ॥ १३॥ इत्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादग्रंथे त्रयो
दशमविद्यारंभसंस्कारवर्णनोनामपंचविंशस्तम्भः॥२५॥
अथषड्विंशस्तम्भारम्भः॥ अथ २६ मे स्तंभलें विवाहविधि लिखते हैं ॥ विवाह जो है सो समकुलशीलवालोंकाही होता है. यतउक्तं ॥
ययोरेव समं शीलं ययोरेव समं कुलम् ॥
तयोमैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥ १ ॥ तिसवास्ते समकुलशील, समजाति, जाने है देशकृत्य जिनोंके, तिनका विवाहसंबंध जोडना योग्य है; तिसवास्ते जो अविकृत है, तिसनें विकृतकुलकी कन्या ग्रहण नहीं करनी । विकृतकुलं यथा। जिनके कुलमें शरीरऊपर रोम बहुत होवे, अर्शरोग होवे, दाद होवे, चित्रकुष्टि होवे, नेत्ररोग होवे, उदररोग होवे, ऐसे वंशोंकी कन्या न ग्रहण करनी. विकृत कुल होनेसें. । कन्या विकता यथा। वरसें लंबी होवे, हीन अंगवाली होवे, कपिला होवे, ऊंची दृष्टिवाली होवे, जिसका भाषण और नाम भयानक होवे, ऐसी कन्या विचक्षणोंको त्यागने योग्य है. तथा देवता, ऋषि, ग्रह, तारा, अग्नि, नदी, वृक्षादिकके नामसे जो कन्या होवे, तथा जिसके शरीरऊपर बहुत रोम होवे, पिंगाक्षी और घरघरास्वरवाली, ऐसी कन्या भी पाणिग्रहणमें वर्जनी ॥ कन्यादाने वरस्य विकृतं कुलं यथा ॥ हीन होवे, क्रूर होवे, वधूसहित होवे, दरिद्री होवे, व्यसन ( कष्ट ) संयुक्त होवे, कन्यादानमें ऐसें कुल, और पुरुषको वर्जना. मूर्ख, निर्धन, दूर देशमें रहनेवाला,
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