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________________ चतुर्विंशस्तम्भः करके भोजन करना, यह उत्तम पक्ष है. क्षत्रियने दंड अजिन धारण करके दश वर्षसें लेके सोलां वर्ष पर्यंत आपही पाक करके, देवगुरुकी सेवामें तत्पर होके, भोजन करना; और वैश्यने दंड अजिन धारण करके स्वकृत भोजन करके बारां वर्षसें लेके सोलां वर्ष पर्यंत भोजन करना; यह उत्तम पक्ष है. । यदि कार्यव्यग्रतासें तितने दिन न रह सके तो, छ (६) मास पर्यंत रहना. तदभावे एक मास पर्यंत, तदभावे पक्ष पर्यंत, तदभावे तीन दिन रहना. यदि तीन दिन भी न रह सके तो, तिसही उपनयनव्रतादेशके दिनमेंही विसर्ग करिये, सोही कहे हैं.। उपनीत, तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशायोंमें जिनप्रतिमाके आगे पूर्ववत् युगादिजिनस्तोत्र सहित शक्रस्तव पडे. लदपीछे आसनपर बैठे गुरुके आगे नमस्कार करके हाथ जोडके ऐसें कहे ॥" भगवन् देशकालाद्यपेक्षया व्रतविसर्गमादिश" ॥ गुरु कहे ॥“आदिशामि ॥"फिर नमस्कार करके शिष्य कहे॥"भगवन् ममव्रतविसर्ग आदिष्टः॥” गुरु कहे॥'आदिष्टः॥"फिर नमस्कार करके शिष्य कहे ॥“भगवन् व्रतबंधो विसृष्टः॥” गुरु कहे ॥“जिनोपवीतधारणेन अविसृष्टोस्तु स्वजन्मतः षोडशोब्दी ब्रह्मचारी पाठधर्मनिरतस्तिष्ठेः॥ तदपीछे पंचपरमेष्ठिमंत्र पढता हुआ शिष्य, मौंजी, कौपीन, वल्कल, दंड, इनको दूर करके, गुरुके आगे स्थापन करे; और आप जिनोपवीतधारी श्वेतवस्त्र उत्तरीय होके गुरुके आगे नमस्कार करके बैठे, तव गुरु तिस बारां तिलकधारी उपनीतके आगे उपनयनका व्याख्यान करे। तद्यथा ॥ आठ वर्षके ब्राह्मणको, दश वर्षके क्षत्रियको, और बारां वर्षके वैश्यको, उपनयन करना तिसमें गर्भमास भी बीचमेंही गिणने । तथाच ॥ "जिनोपवीतमिति जिनस्य उपवीतं मुद्रासूत्रमित्यर्थः॥" जिनका उपवीत अर्थात् मुद्रासूत्र सो कहावे जिनोपवीत. । नवब्रह्मगुप्तिगर्भरत्नत्रय, येह पुरा, श्रीयुगादिदेवने गृहस्थीवर्णत्रयको अपनी मुद्राका धारण करना यावत् जीवतांइ कहा था. । तदपीछे तीर्थके व्यवच्छेद हुए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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