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तत्त्वनिर्णयप्रासादमिथ्यात्वको प्राप्त हुए ब्राह्मणोंने हिंसा प्ररूपणेस चारों वेदको मिथ्या पथमें प्राप्त करे हुए, पर्वत और वसुराजासें प्रायः हिंसक यज्ञके प्रवृत्त हुए, 'यज्ञोपवीत' ऐसा नाम धारण करा. मिथ्यादृष्टि यथेच्छासें प्रलाप करो! परंतु जिनमतमें तो, जिनोपवीतही नाम है, नतु यज्ञोपवीत. तिसवास्ते तैने इस जिनोपवीतको अच्छीतरें धारण करना, मासमासपीछे नवीन धारण करना; प्रमादसें जिनोपवीत जाता रहे, वा टुट जावे तो, तीन उपवास करके नवीन धारण करना. प्रेतक्रियामें दक्षिण स्कंधके ऊपर, और वाम कक्षाके हेठे, ऐसे विपरीत धारण करना. क्योंकि, सो विपरीत कर्म है.। मुनि भी, मृत मुनिके त्यागनमें तथाविध विपरीतही वस्त्र पहेनते हैं, जिसवास्ते, तूं पुरा जन्मकरके शूद्र होता भया, सांप्रत संस्कारविशषकरक ब्रह्मगुप्तिके धारणेसें ब्राह्मण, वा क्षताबाणेन त्राणकरके क्षत्रिय, वा न्यायधर्ममें प्रवेश करनेसें वैश्य हुआ है। तिसवास्ते, क्रियासहित इस जिनोपवीतको अच्छीतरें ग्रहण करना, अच्छीतरें रखना. तेरेको सद्धर्मवासना उपनयनविधि क्षयरहित होवे. ऐसें व्याख्यान करके परमेष्ठिमंत्र पढकर दोनों गुरु शिष्य खडे होवे. पीछे चैत्यवंदन, और साधुवंदन करे. ॥ इत्युपनयने व्रतविसर्गविधिः ॥
अथ गोदानविधिर्यथा ॥
अथ गोदानविधि लिखते हैं. ॥ तदा व्रतविसर्गके अनंतर शिष्यसहित गुरु, जिनको तीन २ प्रदक्षिणा करके पूर्ववत् चारों दिशामें शक्रस्तवका पाठ करे. पीछे गृह्यगुरु, आसनपर बैठे तब शिष्य गुरुको तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करके हाथ जोडके खडा होके, गुरुको विज्ञापना करे.
यथा॥
“॥ भगवन् तारितोहं निस्तारितोहं उत्तमः कृतोहं सत्तमः कृतोहं पूतः कृतोहं पूज्यः कृतोहं तद्भगवन्नादिश प्रमादबहले गृहस्थधर्मे मम किंचनापि रहस्यभतं सकृतं ॥"
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