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________________ ३७२ तत्त्वनिर्णयप्रासादकरना, देशकालादिका चिंतन करना, सौजन्य धारण करना, दीर्घदर्शी होना, कृतज्ञ होना, लजालु होना. परोपकार करना, परको पीडा न करनी, अपना परिभव (तिरस्कार) होवे तब पराक्रम दिखाना, अन्यदा सर्वत्र शांति करनी.। जलाशय, श्मशान, देवल, इनमें और तीन संध्यामें निद्रा, आहार, मैथुनादि वर्जना.। कूपमें प्रवेश करना, कूपको उल्लंघन करना, कूपकांठेपर शयन करना, इन सर्वको वर्जना; तथा नावाविना नदीका लंघना वर्जना. । गुरुके आसनशय्यादिके ऊपर, ताडवृक्षके हेठे, बुरी भूमिमें, दुर्गाष्टिमें, कुकार्यमें, बैठना सदाही वर्जना । खाड कूदनी नही, दुष्ट स्वामीकी सेवा नहीं करनी; चौथका चंद्र, नग्न स्त्री, इंद्रधनुः, इनको देखना नही.। हाथी, घोडा, नखांवाला, और निंदक, इनको दूरसें वर्जना.। दिनमें संभोग (मैथुन ) न करना, रात्रिको वृक्षका सेवन न करना.। कलह, और कलहका समीप, निरंतर वर्जना.। देशकाल विरुद्ध, भोजन, कार्य, गमन, आगमन, भाषण, व्यय (खरच) और आय (लाभ) ये कदापि न करने. यह पूर्वोक्त उत्तम व्रतादेश चारों वर्णोंका है. ॥२०॥ इति चातुर्वर्ण्यस्य समानोत्रतादेशः ॥ ___ गृह्यगुरु, पूर्वोक्त प्रकारसें शिष्यको व्रतादेश करके, आगे करके जिन प्रतिमाको तीन प्रदक्षिणा करावे. फिर पूर्वाभिमुख होके शकस्तव पढे। तदपीछे गृह्यगुरु, आसन ऊपर बैठ जावे, और शिष्य 'नमोस्तु' कहता हुआ गुरुके पगोंमें पडके ऐसें कहे, “भगवन् भवद्भिर्मम व्रतादेशो दत्तः ” तब गुरु कहे, “ दत्तःसुगृहीतोस्तु सुरक्षितोस्तु स्वयं तर परं तारय संसारसागरात् ” ऐसें कहके नमस्कार पढता हुआ ऊठके दोनों गुरु शिष्य चैत्यवंदन करें. तदपीछे ब्राह्मणने, विप्र क्षत्रिय वैश्यके घरमें भिक्षाटन करना; क्षत्रि यने शस्त्र ग्रहण करना; और वैश्यने अन्नदान करना.॥ - इत्युपनयने बतादेशः ॥ ___ अथ व्रतविसर्गःकथ्यतेः-अथ व्रतविसर्ग कहते हैं. ॥ ब्राह्मणने आठ वर्षसें लेके सोलां वर्षपर्यंत, दंड और अजिन धारण करके, भिक्षावृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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