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चतुर्विंशस्तम्भः ।
कलहे तत्समीपं च वर्जनीयं निरंतरम् ॥ देशकालविरुद्धं च भोज्यं कृत्यं गमागमौ ॥ १९॥ भाषितं व्यय आयश्च कर्त्तव्यानि न कर्हिचित् ॥ चातुर्वर्ण्यस्य सर्वस्य तादेशोयमुत्तमः ॥ २० ॥ इति चातुर्वर्ण्यस्य समानोत्रतादेशः ॥
अथ चारों वर्णोंका समान व्रतादेश कहते हैं. ॥ अपने पूज्य गुरुके कहे देवधर्मादिका पालना, देवपूजा करनी, साधुकी यथायोग्य पूजा करनी, ब्राह्मण और लिंगधारीको प्रणाम करना । न्यायसें धन उपार्जन करना. परकी निंदा वर्जनी, किसीका भी अवर्णवाद न बोलना, राजादि - विषयक तो विशेषसें अवर्णवाद न बोलना । अपने सत्वको छोडना नही, धनके अनुसार दान देना, लाभानुसार खरच करना, भोजनके कालमें भोजन करना । थोडे जलवाले देशमें वसना नही, नदी और धर्मगुरुवर्जित देशमें भी नही वसना । राजा, राज्याधिकारी, स्त्री, नदी, लोभी, पूर्ववैरी, इनोंका विश्वास नही करना. कार्यविना स्थावर जीवोंकी भी हिंसा नही करनी । असत्य अहितकारि वचन नही बोलना, गुरुओं (बडों) के साथ विवाद नही करना. माता, पिता और गुरु, इनको उत्कृष्ट तत्त्वकीतरें मान सत्कार करना । शुभ अष्टादश दूषणरहित सर्वज्ञोक्त शास्त्रका श्रवण करना; अभक्ष्य ( नही खाने योग्य) का भक्षण नहीं करना; जे त्यागने योग्य नही है, उनका त्याग नही करना; जे मारणे योग्य नही है, तिनको मारणा नही. अतिथि, सुपात्र, और दीन, इनको यथाविधि यथायोग्य दान देना; दरिद्र, अंधे, दुःखी, इनको भी यथाशक्ति दान देना । हीन अंगवालोंको, और विकलोंको कदापि हसना नहीं । भूख, तृषा, घृणा, क्रोधादि उत्पन्न हुए भी, गोपन करने. । षट् (६) अरिवर्गका विजय करना, गुणों में पक्षपात करना, देशाचार आचरण करना, पाप और अपवादका भय करना । सदृश आचारवाले, समजाति, और अन्य गोत्रजोंके साथ विवाह करना; धर्म अर्थ कामको निरंतर परस्पर अप्रतिबंधसें साधन करना । अपने और परायेका ज्ञान
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