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________________ चतुर्विंशस्तम्भः। स्वज्ञातेरपि मिथ्यात्ववासितस्य पलाशिनः ॥ न भोक्तव्यं गहे प्रायः स्वयंपाकेन भोजनम् ॥९॥ आमान्नमपि नीचानां न ग्राह्यं दानमंजसा ।। भ्रमता नगरे प्रायः कार्यः स्पर्शो न केनचित् ॥ १० ॥ उपवीतं स्वर्णमुद्रां नांतरीयमपि त्यजेः॥ कारणांतरमुत्सृज्य नोष्णीषं शिरसि व्यधाः ॥ ११ ॥ धम्मोपदेशः प्रायेण दातव्यः सर्वदेहिनाम् ॥ व्रतारोपं परित्यज्य संस्कारान् गृहमेधिनाम् ॥ १२॥ निर्ग्रथगुर्वनुज्ञातः कुर्याः पंचदशापि हि ॥ शांतिकं पौष्टिकं चैव प्रतिष्ठामर्हदादिषु ॥ १३ ॥ निग्रंथानुज्ञया कुर्याः प्रत्याख्यानं च कारयेः ।। धार्य च दृढसम्यक्त्वं मिथ्याशास्त्रं विवर्जयेः ॥ १४॥ नानार्यदेशे गंतव्यं त्रिशुद्धयाशौचमाचरेः॥ पालनीयस्त्वया वत्स व्रतादेशो भवावधिः ॥ १५ ॥ ॥ इतिब्राह्मणव्रतादेशः॥ [भाषार्थः] परमेष्टिमहामंत्र सदा हृदयमें धारण करना, मिग्रंथ मुनींद्रोंकी नित्य उपासना करनी। तीन कालमें अरिहंतकी पूजा करनी, तीनवार सामायिक करनी, शक्रस्तवसे सातवार चैत्यवंदना करनी। छाने हुए शुद्ध जलसें त्रिकालमें वा, एककालमें स्नान करना, मदिरा, मांस, मधु, माखण * पांच जातिके उदुंबरफल, आमगोरससंयुक्त अर्थात् कच्चे विना गरम करे गोरस दूध दही छाछके साथ द्विदल अन्न, जिसपर नीली फूली आजावे सो अन्न जीवोत्पत्तिसंयुक्त संधान अर्थात् तीन दिन * तक्रमें पडा हुआ माखण औषधादिकमें ग्राह्य होनेसें सूत्रकारने लिखा नहीं है, तथापि तक्रनिर्गत अंतर्मुहूर्तीनंतर अभक्ष्य ही जाणना ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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