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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
उपरांतका आचार, रात्रिभोजन, शूद्रका अन्न, देवके आगे चढा नैवेद्य इन पूर्वोक्त वस्तुयोंको मरणांतमें भी न खाना । संतानोप्तत्तिकेवास्ते ग्रहवासमें स्त्रीसें संभोग करना न तु कामासक्त होके । चारों आर्यवेद विधि सें पढने, खेती, पशुपालपणा और सेवावृत्ति (नौकरी) येह नही करने । शुचिमान् ऐसे तैनें सत्य वचन बोलना, प्राणिकी रक्षा करनी, अन्य स्त्री और अन्य धन येह वर्जने, कषाय विषयको त्यागने, प्रायः क्षत्रिय और वैश्योंके घर में तैनें भोजन न करना, आर्हत् ब्राह्मणोंके घरमें भोजन करना तुझको योग्य है । अपनी ज्ञातिका जो मिथ्यात्ववासित होवे, और मांसाहारी होवे तिसके घरमें भी भोजन नही करणा । प्रायः आपही पकाके भोजन करना । कच्चे अन्नका भी दान नीचोंका न ग्रहण करणा, नगरमें भ्रमण करतां किसीका भी प्रायः स्पर्श न करना । उपवीत, स्वर्णमुद्रा और अंतरीय, इनको त्याग न करने. कारणांतरको वर्जके शिरके ऊपर उष्णीष धारण न करना । प्रायः सर्व मनुष्योंको धर्मोपदेश देना, व्रतारोust वर्ज निथ गुरुकी आज्ञासें पंचदश १५ संस्कार गृहस्थोंको करने, तथा शांतिक, पौष्टिक, जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठादि करावने । निर्ग्रथकी आज्ञासें प्रत्याख्यान करना, और अन्यको करावना; सम्यक्त्वको दृढ धारण करना, मिथ्याशास्त्रकी श्रद्धा वर्जनी | अनार्य देशमें जाना नही, तीनों शुद्धियां करके शौच आचरण करना; हे वत्स ! तैनें पूर्वोक्त व्रतादेश जबतक संसार में रहे तबतक पालना ॥ १५ ॥ इतिब्राह्मणव्रतादेश: ॥ अथक्षत्रियत्रतादेशः ॥
॥ मूलम् ॥ परमेष्टिमहामंत्रः स्मरणीयो निरंतरम् || शक्रस्तवैस्त्रिकालं च वंदनीया जिनेश्वराः ॥ १ ॥ मद्यं मांसं मधु तथा संधानोदुंबरादि च ॥ निशि भोजनमेतानि वर्जयेदतियत्नतः ॥ २॥ दुष्टनिग्रहयुद्धादिवर्जयित्वा वधगिनाम् ॥ न विधेयः स्थूलमृषावादस्त्यक्तव्य एव च ॥ ३॥
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