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________________ ( २८ ) श्रुत है, सो अनियत है । तथा उपनेइवा इत्यादि मातृकापदत्रयप्रभव, गणधरकृत, आचारादि, जो श्रुतज्ञान है, सिसको ध्रुवश्रुत कहते हैं; और जो, स्थविरकृत, मातृकापदत्रयव्यतिरिक्त, प्रकरणनिबद्ध उत्तराध्ययनादि, अंगबाह्य है, उनको अध्रुवश्रुत कहते हैं. । तदुक्तं श्रीस्थानांगवृत्तौ ॥ गणहरथेराइकयं आएसा सुत्तपगरणओ वा । ध्रुवचलावेसेसणाओ अंगाणंगेसु णाणत्तंति ॥ इस श्रुतज्ञानके उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा, और अनुयोग, ये चार भेद होते हैं. सामान्य प्रकार कथन करना, सो उद्देश; यथा अमुक शास्त्र, वा अध्ययन, तू पद, विशेष कथन करना, सो, समुद्देश; थथा इस शास्त्र, वा अध्ययनको अच्छी तरेसें याद रख, आज्ञा देनी, सो अनुज्ञा; यथा अन्यको पढाव, और सूत्रार्थ कथनरूप व्याख्यान सो अनुयोग. इनका विस्तार श्री अनुयोगद्वार, व्यवहारभाष्य कल्पभाष्यादि सूत्रोंमें है. इत्यादि कारणों से व्याख्यान करनेमें श्रुतज्ञानही उपयोगि है, अन्य नहीं; अन्य ज्ञानोंको मूक होनेसें. इसवास्ते इस समय में श्रुतज्ञानहीकी रक्षा, और वृद्धि करनी चाहिये. क्योंकि, इस समय में श्रुतज्ञानही, हम तुमको आधारभूत है. यदि श्रुतज्ञान शास्त्र न होने तो, देवगुरुधर्मका बोध होना इस कालमें कदापि न होवे. इसवास्ते श्रुतज्ञानकी वृद्धि, तथा रक्षा करनी है, सो धर्मकी वृद्धि और रक्षा करनी है. क्योंकि, इससे अधिक, और कोई भी धर्मवृद्धि करनेका अत्युत्तम साधन नही है. इसवास्ते श्रुतज्ञानकी वृद्धि और रक्षा करनेके उपाय, तथा तत्संबंधी उद्योगमें, सुज्ञजनों को कटिबद्ध होके, तन मन और धनसें, कदापि, पीछे नही हटना चाहिये. ज्ञानकी जो वृद्धि है, सो ज्ञानीके ऊपर आधार रखती है; और ज्ञानीकी वृद्धि, ज्ञानकी अपेक्षा रखती है. ज्ञान और ज्ञानीका परस्पर कार्य -- कारणभाव संबंध है. हरएक गाम में, शहरमें जिलेमें अथवा देशमें, एक ज्ञानी होवे तो, उसके उपदेशसें अन्य कितनेही जनोंको ज्ञान होता है; और जिनको ज्ञान होता है, वे सर्व, ज्ञानी कहाते हैं. जब ज्ञानीसें ज्ञानका प्रचार होता है, तब ज्ञानी, ज्ञानका कारण, और ज्ञान, ज्ञानका कार्य होता है. और जब ज्ञानके प्रचारसें ज्ञानीकी वृद्धि होती है, तब ज्ञान, ज्ञानीका कारण, और ज्ञानी, ज्ञानका कार्य होता है. यद्यपि ज्ञान और ज्ञानीका, गुणगुणीभाव संबंध, असंभवी है; क्योंकि, ज्ञान और ज्ञानी, अभेद है; तिससे कार्यकारणता संभवे नही है. तथापि, कर्म सहित जीवको ज्ञानरूप गुण उत्पत्तिवाला है, तिससे कार्यता संभवे है; और ज्ञानीको कारणता संभवती है. और ज्ञानसें ज्ञानीपणा होता है, तिससे ज्ञान कार्य है, और ज्ञान कारण है. हरएक वस्तुकी सिद्धिमें उसके साधनों की अवश्यमेव अपेक्षा होती है; जब ज्ञानरूप वस्तु सिद्ध करनी होवें, तब तिसके साधन व्याकरण, कोष, कान्य, छंदोलंकार, ज्योतिष, न्याय, धर्म, और अन्य दर्शन विषयक नाना प्रकार के शास्त्र, तथा उन उन शास्त्रोंके अध्ययनका विधि तथा श्रवणमननादिककी आवश्यकता है. प्राचीन कालमें विद्वानोंकी (पूर्वाचार्योंकी) स्परमश्यक्ति अत्युत्कृष्ट होनेसें, वे, हरएक प्रकार की प्रक्रिया, श्रृंखलाबद्ध कंठाग्र रखते थे. www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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