SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २७ ) ared श्रुतज्ञान बढा निमित्त कारण है; श्रुतज्ञानके सुननेसें जीवको शुद्ध स्वरूप विशुद्ध श्रद्धानकी प्राप्ति होती हैं, और उससे शुद्धात्माका आचरण आसेवन अनुभव उत्पन्न होता है, सोही परमपद प्रामि जाननी. श्रुतज्ञानके श्रवण करनेसें जीव, धर्मको विशेषकरके जानता है, विवेकी होता है, दुर्मतिका त्यागी होता है, यावत् मोक्षको प्राप्त होता है. इसवास्ते भुवानका आदर, अवश्य करना चाहिये. श्रुतज्ञानका संयोग होना जीवको अतीव दुर्लभ है. बज्ञानके संयोग श्री गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी, जंबूस्वामी प्रभृति बहुत जीव, संसार समुद्रको तर गयें. और वर्त्तमानकालमें महाविदेहक्षेत्र में श्री सीमंधरादिक तीर्थकरोंकी वाणी सुनके, बहुत जीव, तर रहे हैं. और आगामिकालमें पद्मनाभादि तीर्थंकरोंकी बाणी सुनके, अनेक जीव, तरेंगे. तैसेंही इस भरतादि क्षेत्रमें अद्यतनकालमें भी, जो जीव, तानको सुनेगा, पढेगा, औरोंको पढावेगा, अंतरंग रुचिसें श्रद्धा प्रतीत करेगा, करावेगा, सो, सुलभबोधि होवेगा, यावत्क्रमकरके मुक्तिको प्राप्त होवेगा. ऐसे श्रुतज्ञानका मूल, saint है. तिस श्रुतज्ञानकी वाचना (१) पृच्छना ( २ ) परावर्त्तना (३) अनुप्रेक्षा ( ४ ) और धर्मकथा (५) होती है. सो धर्मकथा, श्री उववाइसूत्र में चार प्रकारकी कही है आपिणी (१) विक्षेपिणी (२) निर्वेदिनी ( ३ ) और संवेदिनी ( ४ ) जिससे एक तत्त्व; मार्ग में प्रवृत्ति होवे, तिस कथाका नाम आक्षेपिणी कथा है । १ । जिसमें मिथ्यात्वकी निवृत्ति होबे, तिसका नाम विक्षेपिणी है । २ । जिससे मोक्षकी अभिलाषा उत्पन्न होवे, तिसका नाम निर्वेदिनी है. । ३ । जिससे वैराग्यभावकी उत्पत्ति होवे, तिसका नाम संवेदिनी है. । ४ । ऐसी श्रुतज्ञानरूप कथा, श्री अरिहंत, देवाधिदेव, परमेश्वर, तीर्थंकर, सवई, जीवनमोक्ष, समवसरणमें बैठके “ उपन्नेइवा विगमेइवा धुवेइवा " इस त्रिपदी उच्चारणपूर्वक, द्वादश वर्षदाके मध्य में करते हैं. और तिससें (त्रिपदीसें ) श्रीगणधर, द्वादशांगीकी रचना करते हैं, तिनको सूत्र कहते हैं. तथा तीर्थंकरके शासन में हुए प्रत्येक बुद्ध, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर प्रभृति महान् पुरुष जिन जिन निबंधोंकी रचना करते हैं, तिनका भी सूत्र संज्ञा होनेसें द्वादवांगीही समावेश होता है. क्योंकि, वे सूत्र भी, द्वादशांगीका आश्रय लेकेही, स्थावर, रचते हैं. दुक्तं श्रीनंदीवृत्तौ ॥ यत्पुनः शेषैः श्रुतस्थविरैस्तदेकदेशमुपजीव्य ॥ विरचितं तदनंगप्रविष्टमित्यादि ॥ परंतु गणधरकृत सूत्रको, 'नियतसूत्र' कहते हैं, और स्थविरकृत सूत्रको, ' अनियत' कहते हैं । उक्तंच ॥ गणहरकयमंगकयं जंकय थेरेहिं बाहिरं तं तु ॥ Jain Education International नियतं चंगपविहं अणिययं सुयबाहिरं भणियं ॥ १ ॥ arrogant अंगमविष्ट कहते हैं, और स्थविरकृतको अनंगप्रविष्ट, अर्थात् अंग बाहिर कहते हैं; तथा जो, अंग प्रविष्ट है, सो नियता है. क्योंकि, सर्व क्षेत्रोंमें सर्व काल अर्थ वा क्रमको अधिकारकरके ऐसेंही व्यवस्थित होनेसें और शेष जो अंगबाहिर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy