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________________ (२९). अर्थात् बड़े बड़े सूत्र प्रमुख द्वादशांगीपर्यत कंठान: रखते थे, तिस समयमें भी यपापित नागरी आदि लिपियें विद्यमान थी, तो भी ग्रंथोंको लिखके रखनेकी बहुत जरूरत नहीं पडती थी. क्योंकि, वो कालमानही तैसा था. पीछे, कालके प्रभावसें जैसे जैसें मनुष्यों को स्मरणशक्ति घटती गई. तैसें तैसें ज्ञानको न्यूनता होने लगी जिससे किसी समय में कितनेक विद्वानोंने इकट्ठे होके, ग्रंथ लिखने लिखवाने प्रारंभ किये. इस रीतिके प्रचलित होनेके बाद उसउस समयके श्रेष्ठ पुरुषोंने, लिखारीयोंके पाससे भनेक ग्रंथ लिखवायके, उनके बडेबडे ज्ञानभंडार (पुस्तकालय) कराये; जो. अयामिक प्रायः पाटनादि शहरों में देखनेमें आते हैं. यद्यपि पूर्वज पुरुषोंने, ऐसे अनेक भंडार करके भुतजानके मुख्य साधन पुस्तकोंकी रक्षा करी है, तथापि, कितनेही अपूर्व अपूर्वतर पुस्तक, पढ़ते पदाने, पाले, और समझने समझानेवालेके, अभावसे, नष्ट होगये, और कितनेक. पुस्तक तो नानिक योक प्रमादसे नष्ट होगये, अब जो विद्यमान है, उनमें भी न्यूनता होनेका संभव हो रहा है। क्योंकि, न तो, कोई जैनीयोंमें पठन पाठनका 'कालेज.' (बृहज्जैनशाला), प्रमुख, मन है, और न मातापिता ध्यान देकर पढाते हैं, केवल सांसारिक वियाके ऊपरही जोर देते हैं, परंतु यह उनकी बड़ी भारी मूल है. यदि सांसारिक विद्याके साथही, धार्मिक विद्या भी पड़ाई मावे तो, थोडेही प्रयाससे ज्ञान वृद्धि होवे, और धर्मकी भी वृद्धि होवे, तथा अपने संतानोंका परलोक भी सुधर जावे. परंतु, मोदक खाने छोडके ऐसा काम कौन करे १ अयोस !!!" मैनियोंका उदय, कैसे होगा? ___ हां! आजकाल कई लोग नवीन पुस्तक लिखाके भंडार कराते हैं, परंतु वो भी मक्षिका स्थाने मक्षिकावत् जैसा लिखारियोंने लिख दिया, वैसाही लेके स्थापन करदिया; शुद्ध कौन करे ? हाय ! जैनीयोंमें प्रमादने कैसा घर करदिया.! जो, ज्ञान पढ़नेकेतरफ ख्याली नही होने देता है !!! ऐसे जानके अभ्यासके न होनेसें लोगोंमें संस्कृत प्राकूनका.बोध घट गया, तो भडू इस समयमें संस्कृत प्राकृतके बोधरहित लोगोको बोध कराने के वास्ते देशीयम पामें ग्रंथ रचना,करके, अपनी शक्तिके अनुसार प्रत्येक ज्ञाता पुरुषको अपना ज्ञान प्रसिद्ध करना उचित है; इसीवास्ते पूज्यपाद श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वर (आत्मारामजी) महाराजजीने भव्यजीवोंके उपकारकेवास्ते, अतिशय परिश्रम करके, लोक (देश)भाषामें ग्रंथोंकी रचना करनी प्रारंभ करी. जिनमें जैनतत्वादर्श, अज्ञानतिमिरभास्कर, जैनप्रशोत्तरावाल, सम्यक्त्वशल्योडारादि कितनेही ग्रंथ, छपकरके प्रसिद्ध होगये है; कितनेक प्रसिद्ध करनेकेवास्ते तैयार हैं, परंतु, प्रथम इस., 'तखतिशंप्रमाचा नामक ग्रंथको प्रसिद्धिमें रखते हैं. इस ग्रंथका नाम यथार्थही गुणनिष्पन है. क्योंकि, जो कोई निष्पक्षपाती इस ग्रंथरूप प्रासाद(मंदिर)में प्रवेश करेगा, अवश्यमेव वस्तुस्वरूपनिर्णय AIR करेगा. इस ग्रंपके बनाने में) ... " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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