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________________ ३५९ चतुर्विशस्तम्भः। विलस्तप्रमाण पृथुल (चौडा) और तीन विलस्तप्रमाण दीर्घ (लंबा) कौपिन दोनों हाथों में लेके ॥ “॥ ॐ अर्ह आत्मन् देहिन मतिज्ञानावरणेन श्रुतज्ञानावरणेन अवधिज्ञानावरणेन मनःपर्यायावरणेन केवलज्ञानावरणेन इंद्रियावरणेन चित्तावरणेन आवृतोऽसि तन्मुच्यतां तवावरणमनेनावरणेन अर्ह ॐ ॥” इस वेदमंत्रको पढता हुआ, उपनेयके अंतःकक्षको कौपीन पहरावे । तदपीछे उपनेय ‘नमोस्तु २' कहता हुआ, फिर भी गुरुके पगोंमें पडे । फिर तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशामें शक्रस्तवपाठ करे.॥ ___ तदनंतर लग्नवेलाके हुए गुरु, पूर्वोक्त जिनोपवीतको अपने हाथमें लेवे पीछे उपनेय फेर खडा होकर हाथ जोडके ऐसें कहे ॥ “॥ भगवन वोज्झितोऽस्मि । ज्ञानोज्झितोस्मि । क्रियोज्झितोस्मि । तजिनोपवीतदानेन मां वर्णज्ञानक्रियासु समारोपय॥" ऐसें कहके 'नमोस्तु २' कहता हुआ गृह्यगुरुके पगोंमें पडे गुरु फिर पूर्वोक्त उत्थापनमंत्रकरके तिसको उठाके खडा करे । तदपीछे गुरु दक्षि ण हाथमें जिनोपवीत रखके ॥ "ॐ अर्ह नवब्रह्मगुप्तीः स्वकरकारणानुमतीरियेः तदक्षयमस्तु ते व्रतं स्वपरतरणतारणसमर्थो भव अहं ॐ ॥" क्षत्रियको “॥करणकारणाभ्यां धारयेः स्वस्य तरणसमर्थो भव ॥" वैश्यको “॥ करणेन धारयेः स्वस्य तरणसमर्थो भव ॥” शेषं पूर्ववत् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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