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त्रयोविंशस्तम्भः ।
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मुखाविकको ॥ ' ॥ ॐ अहँ तव श्रुतिद्वयं हृदयं धर्माविद्धमस्तु ॥'
ऐसे कहना. ॥
तदपीछे बालकको यानमें बैठाके, वा नर नारी उत्संगमें लेके धर्मागारमें लेइ जावे तहां पूर्वोक्त विधिसें मंडलीपूजा करके बालकको गुरुके arriad लोटावे. तब यतिगुरु विधिसें वासक्षेप करे । तदपीछे बालकको घरमें ल्याके गृहस्थगुरु कर्णाभरण पहिनावे. । यतिगुरुयोंको शुद्ध चार प्रकारका आहार वस्त्र पात्र देवे । गृहस्थगुरुको वस्त्र स्वर्णदान देवे. ॥ इत्याचार्य श्रीवर्द्धमानसूरिकृताचारदिनकरस्य गृहिधर्मप्रतिबद्धकर्णवेधसं
स्कारकर्त्तननामदशमोदयस्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूरिकृतावालावधोधस्समातस्तत्समाप्तौ च समाप्तोयं द्वाविंशस्तम्भः ॥ १० ॥
इत्याचार्यश्रीमद्विजयानंदसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादग्रन्थे दशमकर्णवेध संस्कारवर्णनो नाम द्वाविंशस्तम्भः ॥ २२ ॥
॥ अथ त्रयोविंशस्तम्भारम्भः ॥
अथ २३ मे स्तंभमें चूडाकरणसंस्कारविधि लिखते हैं. ॥ हस्त, चित्रा, स्वाति, मृगशीर्ष, ज्येष्ठा, रेवती, पुनर्वसू, श्रवण, धनिष्ठा, इन नक्षत्रोंमें । १ । २ । ३ । ५ । ७ । १३ । १० । ११ । इन तिथियों में। शुक्र, सोम, बुध, इन वारोंमें चंद्र वा तारेके बल हुए, क्षौरकर्म करणा । पर्वके दिनोंमें, यात्रामें, स्नानसेंपीछे, भोजनसेंपीछे, विभूषापीछे, तीन संध्यामें, रात्रिमें, संग्राममें, क्षयतिथिमें, पूर्वोक्त तिथिवारसें अन्य तिथिवारमें, और अन्य भी मंगलकार्य में क्षौरकर्म न करणा• ॥ क्षौरनक्षत्रोंमें स्वकुलविधिकरके चूडाकरण करणा मुनींद्र कहते हैं; परं गुरु, शुक्र और बुध यह तीन ग्रह केंद्र में १४ । ७ । १० होने चाहिये । यदि केंद्र में सूर्य होवे तो ज्वर होवे; मंगल होवे तो शस्त्रसें नाश होवे शनि होवे तो पंगुपणा होवे; क्षीण चंद्र होवे तो नाश होवे । षष्ठी (६), अष्टमी (८), चतुर्थी (४), सिनीवाली ( चतुर्दशीयुक्त अमावास्या), चतुर्दशी (१४), नवमी (९), इन तिथीयोंमें और रवि, शनि, मंगल, इन वारोंमें क्षौरकर्म न करावणा । भन २, व्यय १२,
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