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तत्त्वनिर्णयप्रासादरेवती, श्रवण, हस्त, अश्विनी, चित्रा, पुष्य, धनिष्ठा, पुनर्वसू, अनुराधा, चंद्रसहित इन नक्षत्रोंमें कर्णवेध करना, मुनिजन कहते हैं । लाभ १६, तृतीय ३, घरमें शुभ ग्रहोंकरके संयुक्त होवे, शुभराशि लग्नमें क्रूर ग्रहों करके रहित बृहस्पतिके लग्नाधिप, वा लग्नमें हुए कर्णवेध करणा. जिसमें चंद्र नक्षत्र, पुष्य, चित्रा, श्रवण, रेवती, जाणने । मंगल, शुक्र, सूर्य, बृहस्पति, इन वारमें शुभ तिथीमें शुभ योगमें बालक और कन्याका कर्णवेध करणा.॥ इन निर्दोष तिथि वार नक्षत्रमें बालकको चंद्रबलके हुए कर्णवेध आरंभ करे. । उक्तं च । “ गर्भाधान, पुंसवन, जन्म, सूर्यचंद्रदर्शन, क्षीराशन, षष्ठी, शुचि, नामकरण, अन्नप्राशन, मृत्यु, इन संस्कारों में अवश्य कार्य होनेसें पंडित पुरुषोंने वर्षमासादिकी शुद्धि न देखणी. । कर्णवेधादिक अन्य संस्कारोंमें विवाहकीतरें वर्ष मास दिन नक्षत्रादिकोंकी शुद्धि अवश्यमेव विलोकन करणी.। यथा । तीसरे पांचमे सातमे निर्दोष वर्षमें बालकको बलवान सूर्य होवे, तिस मासमें इष्ट दिनमें, गुरु, बालकको और बालककी माताको अमृतामंत्र अभिमंत्रित जलकरके मंगलगानपूर्वक अविधवायोंके हाथेकरी स्नान करावे. । और तहां कुलाचारसंपदा अतिशय विशेषकरके तैलनिषकसहित तीन पांच सात नव इग्यारह दिनांतक स्नानका विधि जाणना, । तिसके घरमें पौष्टिकाधिकारमें कहे सर्व पौष्टिकको करणा, षष्ठीको वर्जके मात्रष्टकपूजन पूर्ववत् करणा, । तदपीछे ख २ कुलानुसार अन्य ग्राममें कुलदेवताके स्थानमें पर्वतउपर नदीतीरे वा घरमें कर्णवेधका आरंभ करे. । तहां मोदक नैवेद्यकरण गीतगान मंगलाचारादि व २ कुलागत रीतिकरके करणा. । तदपीछे बालकको पूर्वाभिमुख आसनऊपर बिठलाके तिसके कर्णवेध करे तहां गुरु यह वेदमंत्र पढे।
यथा ॥
“॥ॐ अर्ह श्रुतेनाडोपाडैः कालिकैरुत्कालिकैः पूर्वगतैश्चलिकाभिः परिकर्मभिः सूत्रैः पूर्वानुयोगैः छन्दोभिलक्षणैनिरुक्तैर्धर्मशास्त्रैर्विद्धको भयात्अर्ह ॐ॥"
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