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तत्त्वनिर्णयप्रासाद. आज्ञा जिसने, अर्थात् गुरुकी आज्ञाका करनेवाला, ऐसे पूर्वोक्त विशेषणोंवाला जैनब्राह्मण, अथवा क्षुल्लक, गृहस्थोंके संस्कारकर्म करणेके योग्य होता है। उक्तं च ॥
शांतो जितेंद्रियो मौनी दृढसम्यक्त्ववासनः॥
अर्हत्साधुकृतानुज्ञः कुप्रतिग्रहवर्जितः इत्यादिश्लोकः॥४॥ भावार्थ:-शांत, जितेंद्रिय, मौनी, दृढसम्यक्त्ववान, अर्हन् और साधुकी आज्ञा करनेवाला,बुरा दान न लेवे,क्रोध मान माया लोभका जीपक, कुलीन, सर्व शास्त्रोंका जानकार, अविरोधी, दयावान्, राजा और रंकको समदृष्टिसें देखनेवाला, प्राणोंके नाश होते भी अपने आचारको न त्यागे, सुंदर चेष्टावाला होवे, अंगहीन न होवे, सरल होवे, सदा सद्गुरुकी सेवा करनेवाला होवे, विनीत, बुद्धिमान्, क्षांतिमान्, कृतज्ञ, दोप्रकारसें द्रव्यभावसें शुचि होवे; गृहस्थोंके संस्कार करने में ऐसा गुरु चाहिये.॥
सो पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट गुरु, गर्भाधान कर्ममें प्रथम गर्भवंतीके पतिकी आज्ञा लेवे.। और सो गर्भवंतीका पति, नखसे लेके शिखा (चोटी) पर्यंत स्नान करके, शुचि वस्त्र पहिनके निज वर्णानुसार उपधीत उत्तरीय वस्त्रउत्तरासंग करके,प्रथम शास्त्रोक्त बृहत्स्नात्रविधिसें अर्हत्प्रतिमाका मात्र करे.। और तिस स्नात्रके पाणीको शुभ भाजनमें स्थापन करे. । तिसपीछे शास्त्रोक्त विधिसें गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, गीत, वादित्रोंकरके जिनप्रतिमाकी पूजा करे. । पूजाके अंतमें गुरु, गर्भवंतीको, अविधवायोंके हाथोंकरी स्नात्रोदककरके सिंचनरूप अभिषेक करवावे. । पीछे सर्व जलाशयोंके जलोंको एकत्र मिलाके, सहस्रमूलचूर्ण तिसमें प्रक्षेप करके, तिस जलको शांतिदेवीके मंत्रकरके, अथवा शांतिदेवीके मंत्रगर्भित स्तोत्रकरके मंत्र.॥
शांतिदेवीमंत्रो यथा ॥ “ॐ नमो निश्चितवचसे। भगवते । पूजामर्हते ।जयवते। यशस्विने । यलिस्वामिने । सकलमहासंपत्तिसमन्विताय ।
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