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त्रयोदशस्तम्भः
जिवास्ते कहा है आगममें. ॥
विद्ययं जोइसं चैव कम्मं संसारिअं तहा ॥ विद्या मंतं कुणंतो य साहू होइ विराहओ ॥ १ ॥
अर्थः- वैदक, ज्योतिष्य, सांसारिक कर्म, विद्या, मंत्र, ये सर्व कृत्य, जो साधु गृहस्थको करे, सो साधु जिनाज्ञाका विराधक होता है. ॥ पूर्वपक्ष:- तब येह व्रतारोपवर्जित १५ संस्कार किसने करने ? उत्तरपक्षः
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अर्हन्मंत्रोपनीतश्च ब्राह्मणः परमार्हतः ॥ क्षुल्लक वाssप्तगुर्वाज्ञो गृहिसंस्कारमाचरेत् ॥१॥
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अर्थः- अर्हन्मंत्रोपनीत परमार्हत ( परमश्रावक ) ब्राह्मण, और प्राप्त करी है गुरुकी आज्ञा जिसने ऐसा क्षुल्लक श्रावक विशेष, जिसका स्वरूप १८ उदयमें लिखा है; इन दोनोंमेंसें कोइ एक गृहस्थोंको संस्कार करे । तिनमें प्रथम गर्भाधान संस्कारका विधि लिखते हैं । जब गर्भाधान (गर्भधारण) को पांच मास होवे, तब गर्भाधानविधि, गृहस्थगुरुयों (श्रावक ब्राह्मणों) ने करना- । गर्भाधान १, पुंसवन २, जन्म ३, नाम ४ और अंत ५, इन पांच संस्कारोंमें अवश्य कर्मके हुए, मास दिनादिकोंकी शुद्धि न देखनी । श्रवण, हस्त, पुनर्वसु, मूल, पुष्य, मृगशीर्ष, येह नक्षत्र और रवि, मंगल, बृहस्पति, येह वार पुंसवनादिकमोंमें कहे हैं । इसवास्ते पांच मासमें शुभ तिथि, वार, नक्षत्रके दिनमें पतिको बलवान् चंद्रादि देखकर, देशाविरतिगुरु जिसने स्नान करा है, चोटी बांधी है, उपवीत और उत्तरासंग धारण करा है, श्वेतवस्त्र पहिना है, पंचकक्षा धारण करा है, मस्तक में चंदनका तिलक करा है, सुवर्णमुद्रासहित दक्षिणकर सावित्रीक प्रकोष्ठबद्ध पंचपरमेष्ठि मंत्रोद्दिष्ट पांच ग्रंथियुक्त दर्भसहित कौसुंभ सूत्रका कंकण है जिसके, तथा जिसने रात्रिमें ब्रह्मचर्य पाला है, सेवन किया है; जिसने उपवास (व्रत) आचाम्ल (आंबल ) निर्विकृति एकाशनादि प्रत्याख्यान करा है, संप्राप्तकरी है आजन्म यतिगुरुकी
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