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________________ ३२२ तत्त्वनिर्णयप्रासाद भावार्थ:-व्यवहार भी बलवान् है, जिसवास्ते जबतक छद्मस्थको मालुम न होवे, और ना न कहें, तबतक केवली भी छद्मस्थ गुरुको वंदना करता है; और छद्मस्थका ल्याया आहार यद्यपि छद्मस्थ अपनी जाणमें शुद्ध जाणकर ल्याया है, परंतु केवली केवलज्ञानकरके आधाकर्मादिदूषणसंयुक्त जानते हैं,तो भी व्यवहार प्रमाण रखनेकेवास्ते तिस आहारको भक्षण करते हैं; इसवास्ते व्यवहार प्रमाण है. लौकिक मतमें भी कहाहै ॥ चतुर्णामपि वेदानां धारको यदि पारंगः ॥ तथापि लौकिकाचारं मनसापि न लक्षयेत् ॥१॥ यदि चारों वेदोंका धारक, और पारगामी होवे, तो भी लौकिकाचारको मनकरके भी लंघन न करे ॥ इसीवास्ते प्रथम गृहस्थधर्मके. षोडश १६ संस्कार कहते हैं। तद्यथा श्लोकाः॥ गर्भाधानं पुंसवनं जन्मचन्द्रार्कदर्शनम् ॥ क्षीराशनं चैव षष्ठी तथा च शुचि कर्म च ॥ १॥ तथा च नामकरणमन्नप्राशनमेव च ॥ कर्णवेधो मुण्डनं च तथोपनयनं परम् ॥२॥ पाठारम्भो विवाहश्च व्रतारोपोन्तकर्म च ॥ अमी षोडशसंस्कारा गृहिणां परिकीर्तिताः॥३॥ भाषार्थः-गर्भाधान १, पुंसवन २, जन्म ३, चंद्रसूर्यदर्शन ४, क्षीराशन ५, षष्ठी ६, शुचिकर्म ७, नामकरण ८, अन्नप्राशन ९, कर्णवेध १०, मुंडन ११, उपनयन १२, पाठारंभ १३, विवाह १४, व्रतारोप १५, अंतकर्म १६, येह सोलां संस्कार गृहस्थीके कथन करे.। इन षोडश (१६) संस्कारोंमेंसें बतारोपसंस्कारको वर्जके, शेष १५ पंदरां संस्कार, यतिसाधुने गृहस्थीको नही करणे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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