________________
३१८
तत्त्वनिर्णयप्रासादउत्तरपक्षः-ऐसा माननेसें तो चारों वेद भी माननेयोग्य सिद्ध नहीं होवेंगे, क्योंकि, तिनमें भी संपूर्ण संस्कार वर्णन नही है. अपरं च ये पच्चीस वा सोलां संस्कार प्रायः संसारव्यवहारमेंही दाखिल है, और जैनके मूल आगममें तो निःकेवल मोक्षमार्गकाही कथन है; और जहां कहीं चरितानुवादरूप संसारव्यवहारका कथन भी है तो, ऐसा है कि, जब स्त्री गर्भवती होवे तब गर्भको जिन २ कृत्योंके करनेसे तथा आहार व्यवहार देशकालोचितसे विरुद्ध करनेसें गर्भको हानि पहुंचे सो नही करती है, और पुत्र के जन्म हुआंपीछे प्रथमदिनमें लौकिक स्थिति मर्यादा करते हैं, तीसरे दिन चंद्रसूर्यका पुत्रको दर्शन कराते हैं, छठे दिनमें लौकिक धर्मजागरणा करते हैं, और ११ मे दिन अशुचि कर्म, अर्थात् सूतिकर्मसें निवृत्त होते हैं, और विविधप्रकारके भोजन उपस्कृत करके न्यातीवर्गादिको भोजन जिमाते हैं, और तिनके समक्ष पुत्रका नाम स्थापन करते हैं, जब आठ वर्षका होता है, तब तिसको लिखितगणितादि बहत्तर (७२) कला पुरुषकी पुत्रको, और चौसष्ट (६४) कला स्त्रीकी कन्याको सिखलाते हैं, तदपीछे जब सिके नव अंग सूते प्रबोध होते हैं,
और यौवनको प्राप्त होता है, तब तिसके कुल, रूप, आचारसदृश कुलकी निर्दोष कन्याके साथ विवाहविधिसे पाणिग्रहण करवाते हैं, पीछे संसारके यथा विभवसें भोगविलास करता है, पीछे साधुके जोग मिलें गृहस्थधर्म वा यतिधर्म अंगीकार करता है, धर्म पालके पीछे विधिसे प्राणत्याग करता है; इतना विधि गृहस्थ व्यवहारादिकका श्रीआचारांग, विवाहप्रज्ञप्ति ( भगवती), ज्ञाता धर्मकथा, दशाश्रुत स्कंधके आठमे अध्ययनादिमें चरितानुवादरूप प्रतिपादन करा है. तीर्थंकरके जन्म हुये तिनके मातापिता जे कि श्रावक थे, तिनोंने भी यह पूर्वोक्त विधि करा है. इसवास्ते मूल आगोंमें चरितानुवादकरके गृहस्थव्यवहारका विधि सूचन करा है, परंतु विधिवादसे कथन कराहुआ हमको मालुम नही होता है. परं आदि जगत् व्यवहार आदीश्वर श्रीऋषभदेवजीनेही चलाया था, तिनके चलाये व्यवहारकाही ब्राह्मणोंने उलटपलट घालमेल करके २५ वा १६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org