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द्वादशस्तम्भः। सो सर्व सत्य करके मान लेना; तो हम कहते हैं कि, तिन पुस्तकों में ऐसी कोइ वक्तव्यता है, जो कि प्रमाणयुक्तिद्वारा विचार करनेसे बाधित हो जावे; इसवास्तेही तुम कहते हो कि, प्रमाणयुक्तिसें तिसकी परीक्षा नही करनी ? जेकर सुवर्ण निर्दोष है तो, तिसको सराफकी परीक्षाका क्या भय है? खोटेकोही परीक्षाका भय है, खरेको नही. । इससे पूर्वोक्त ग्रंथ खोटसंयुक्त है, तिनके खोट छिपानेकेवास्तेही तुमारे मतमें ऐसे २ श्लोकरूप जाल बनाके लिख गए हैं कि, जिसमें अज्ञानी पुरुषरूप मत्स्य फसके मर रहे हैं. सर्वज्ञोंका कहना तो यह है कि, परीक्षाकरके वस्तुतत्व ग्रहण करना चाहिये. हां. जो वस्तु प्रत्यक्ष अनुमानका विषय न होवे, तिसको आगमप्रमाणसे मानना चाहिये; परंतु आगम भी कैसा ? जो आप्तप्रणीत होवे. आप्त कौन ? जिसके अष्टादश (१८) दृषण अत्यंत दूर हो गये होवे;
और आप्तका निर्दोषपणा तिसके संपूर्ण जन्मचरितके सुननेसें, और तिसकी मूर्तिके देखनेसे सिद्ध होता है; सो तो, प्रेक्षावानही कर सकते हैं, न तु मृढ कदाग्रही व्युदाहित. सो विस्तारपूर्वक देखके परीक्षा करनी होवे, उसने तिन २ आप्तोंके चरित वांचने. और संक्षेपरूप तो इसीग्रंथमें लिख आये हैं. इसवास्ते जिस शास्त्रका कथन युक्तिप्रमाणसें बाधित न होवे, सो मानना चाहिये. - तथा मनुजीके कथन करे श्लोकसें यह भी सिद्ध होता है कि, मनुजीके समयमें भी वेदोंके निंदक थे, जिनको मनुजीने नास्तिक कहा है. परंतु यह कहना मिथ्या है; क्योंकि, जेकर तो वेदोंका कथन प्रमाणयुक्तिसें बाधित न होवे, तब तो सत्य है कि, जो वेदोंका निंदक है सो नास्तिक है. और जेकर वेदोंका कथन युक्तिप्रमाणसें बाधित है, तब तो, वेदोंके माननेवाले और आप्तप्रणीत सत्य शास्त्रोंको मिथ्या शास्त्र कहनेवाले, और सत्य शास्त्रोंके माननेवालोंको नास्तिक कहनेवालेही नास्तिक हैं.
पूर्वपक्षः-जैन मतके मूल आगमग्रंथोंमें गृहस्थधर्मके पञ्चीस वा सोलां संस्कार नहीं है, इसवास्ते जैनशास्त्र माननेयोग्य नहीं है....
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