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द्वादशस्तम्भः।
३१३ ह्मण यज्ञोंके कर्मोको करके उस बडे यज्ञकी अग्निमें बहुत प्रकारसें हवन करते भये,। सामवेदी ब्राह्मण तो उच्चस्तरसें पाठ करते भये, अध्वर्यु आदिक अन्य ब्राह्मण अपने कर्म करने लगे, यज्ञ में कहे हुए पशुओंका आलंभन होने लगा, यज्ञभोक्ता ब्राह्मण और देवता आने लगे, हे ऋषियो ! जो इंद्रियोंके भोगकी इच्छा करनेवाले देवता हैं, वहीं यज्ञके भागको भोगते हैं; अन्य सब देवता उन्हींका पूजन करते हैं. वेही फिर कल्पकी आदिमें उत्पन्न होते हैं. । उस यज्ञमें जब अध्वर्यके प्रेरणेका समय आया, तब ऋषिलोग खडे हो गये; और उन दीन पशुओंको देख कर विश्वभुक् देवताओंसें यह वचन बोले कि, तुम्हारे इस यज्ञका कैसा विधि है ? इस हिंसा करनेका महा अधर्म है; और हे इंद्र ! तेरे इस यज्ञमें यह विधि उत्तम नहीं है,। तेने पशुओंके मारनेकरके यह अधर्म प्रारंभ किया है, इस हिंसारूपी यज्ञसें धर्म नहीं होता है; किंतु महा अधर्म होता है. जो तुम उत्तम कर्म चाहते हो तो, शास्त्रोंके अनुसार धर्म करो.। हे इंद्र ने त्रिवर्गकी नाश करनेवाली महादुर्व्यस. नरूप हिंसासंबंधी विधियोंकरके अपने यज्ञको रचा है. इसप्रकार ऋषियोंसे शिक्षा किया हुआ भी इंद्र अपने अभिमानसे मोहको प्राप्त हो कर, उन तत्वदशी ऋषियोंके वचनको नही ग्रहण करता भया.। उस समय उन ऋषियोंका और इंद्रका यह बड़ा भारी विवाद होता भया कि, यज्ञ जंगम पशुओंसें होना चाहिये, अथवा स्थावर वस्तुओंके शाकल्यादिकोंसें होना चाहिये। वह बडे २ शक्तिमान् महर्षि उस विवादसे महादुःखित हो कर, आकाशमें विचरनेवाले वसुराजाको इंद्रकेही समान जान कर उससे यह पूछने लगे कि, हे महाप्राज्ञ तुमने यज्ञकी विधि देखी है ? जो देखी होय तो, हमारे संदेहको दूर करो.। सूतजी कहते हैं कि, वह वसुराजा ऋषियोंके वचनको सुन कर बलाबलको न विचार, वेदशास्त्रको स्मरण कर, यज्ञके तत्त्वको कहने लगा कि, शास्त्रमें यज्ञके योग्य उत्तम पशुओंकरके, अथवा मूलफलादिकोंकरके यथार्थ विधिसें यज्ञ करना चाहिये। यज्ञका हिंसाही स्वभाव है, इसीसें वेदमें हिंसको
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