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________________ तत्त्वनिर्णयप्रासादततस्ते ऋषयो दृष्टा हृतं धर्म बलेन ते ॥ वसोर्वाक्य नाहत्य जग्मुस्ते वै यथागतम् ॥ ३६ ॥ गतेषु ऋषिसंघेषु देवा यज्ञमवाप्नुयुः॥ श्रूयन्ते हि तपःसिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः ॥ ३७॥ प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः ॥ सुधामा विरजाश्चैव शंखपाद्राजसस्तथा ॥ ३८ ॥ प्राचीनबर्हिः पर्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः ॥ एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवं गताः ॥३९॥ राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्तिः प्रतिष्ठिता ॥ तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः ॥४०॥ ब्रह्मणा तमसा स्पृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा ॥ तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपोमूलमिदं स्मृतम् ॥४१॥ यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत्स्वायंभुवेन्तरे ॥ तदाप्रति यज्ञोऽयं युगैः साई प्रवर्तितः ॥४२॥ ___अध्यायः॥४२॥ भाषार्थः ॥ ऋषियोंने पूछा, हे सूतजी ! त्रेतायुगकी आदिमें वायंभुव मनुके सर्गमें यज्ञोंकी प्रवृत्ति कैसे होती भयी? यह आप हमकों समझाइये. । जब सत्ययुगकी संध्या समाप्त होजानेपर त्रेतायुगकी प्राप्ति होती है, तब बहुतसी औषध उत्पन्न होती हैं, अधिक वर्षा होती है, ग्रामपुरआदिकोंमें उत्तम प्रतिष्ठित बातें होने लगती हैं, उस समय सबवर्णाश्रम इकडे होकर अन्नको इकट्ठा करके वेदसंहिताओंसें यज्ञोंकी कैसे प्रवृत्ति करते हैं ? ऋषियोंके इन वचनोंको सुनकर सूतजीने कहा कि, हे ऋषिलोगो -इस संसारके, और परलोकके कर्मोंमें मंत्रोंको युक्त करके विश्वका भोगनेवाला इंद्र सर्वसाधनों और देवताओंसे युक्त होकर, जव यज्ञ करता भया, तब उस यज्ञमें बडे २ ऋषिलोग आये। ऋत्विक प्रा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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