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तत्त्वनिर्णयप्रासाद. चिन्हवाले मंत्र कहे हैं; यह मैंने तत्वज्ञ ऋषियोंकेही प्रमाणसें कहा है. इसको आप क्षमा करियेगा, हे द्विजोत्तमलोगो! तुम जो अपनेही वचन और मंत्रोंको मुख्य मानते हो तो, अन्यथाही यज्ञ करो; मेरे वचनोंको सत्य मत जानो.। जब उसने ऐसा उत्तर दिया, तब वह ऋषि अपने आत्माको तपोबुद्धिकरके युक्त कर, और अवश्यभावीको देख कर उस वसुको नीचे जानेका शाप देते भये । उससमय वह वसुराजा पाताललोकमें प्राप्त होता भया. ऋषियों के शापसे ऊपरके लोकोंका भी विचरनेवाला हो कर, नीचेके लोकोंको प्राप्त होता भया.। उस वचनके कहनेसे वह धर्मज्ञ भी राजा पातालमें प्राप्त होता भया. इस हेतुसे अकेले बहुत जाननेवाले भी पुरुषको बहुतसी धारणावाले धर्मका खंडन करना योग्य नहीं है. क्योंकि, धर्मकी बडी सूक्ष्म गति है.। इसकारणसें किसी पुरुषको भी निश्चयकरके कोई धर्म न कहना चाहिये. क्योंकि, देवता और ऋषियोंके प्रति स्वायंभुवमनुके विना दूसरा कोइ पुरुष भी कहनेको नहीं समर्थ है. । ऋषिलोग यज्ञमें कभी हिंसा नहीं करते, और किरोडों ऋषि तपस्याहीके प्रभावसें खर्गमें प्राप्त हुए हैं.। इसीहेतुसे बडे महात्मा ऋषि हिंसाधर्मकी प्रशंसा नहीं करते हैं. तपोधन ऋषि, शिलोंछवृत्ति, मूल, फल, शाक, जल और पात्र, इनहीके दान करनेसें स्वर्गमें प्राप्त हुए हैं. द्रोह मोहसे रहित, जितेंद्री, भूतोंपर दया, शांति, ब्रह्मचर्य, तप, शौच, क्रोध न करना, क्षमा और धृति, यह सब सनातन धर्मके मूल हैं. द्रव्य तो मंत्रात्मक यज्ञ है, तप समतात्मक यज्ञ है, यज्ञोंसेंही देवयोनि प्राप्त होती है; तपकरके विराट शरीर प्राप्त होता है. कर्मोंके त्याग करनेसे ब्रह्माके शरीरको प्राप्त होता है, वैराग्यसें मायाका नाश होता है, और ज्ञानसें कैवल्य मोक्ष प्राप्त होता है. यह पांच गति कही है. । प्रथम स्वायंभुवमनुके अंतरमें ऐसे यज्ञके प्रवृत्त होनेमें, ऋषियोंका और देवतावोका बडा विवाद हुआ है. । इसके पीछे वह ऋषि बलसें हत हुए धर्मको देख कर, राजा वसुका अनादर कर, अपने स्थानमें जाते भये.!
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