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________________ ३०८ तत्त्वनिर्णयप्रासादसर्वभूतोंके क्षय करनेवाले जरारोगादिकरके पुरुषोंको दुःख देनेवाले कालमें श्रेय (कल्याण) कारी क्या पदार्थ है ? तिसको हे पितामह ! आप कहो, जिससे हम उसको अंगीकार करे. तब भीष्म पितामह, पुरातन इतिहास कथन करते हुए; जिसमें मेधावीनामा पुत्रके धर्ममार्गके पूछा हूआँ, पिताने कहा अग्निहोत्रादि यज्ञ कर, तव तिसके उत्तरमें पुत्र जबाब देता है. । पशुयज्ञैरित्यादि। मादृशः मेरेसरिखा मोक्षार्थका जानकार हिंसक पशुयज्ञोंकरके यज्ञ करनेको कैसें योग्य है ? अपि तु कदापि नही. अर्थात् मेरेसरिखे जानकारकों ऐसे हिंसक पशुयज्ञ करने योग्य नही है. । इत्यादि ॥ इसवास्ते वेदोंके पुस्तक अप्रमाणिक है, युक्तिप्रमाणसें बाधित होनेसें. सो कथन संक्षेपसें ऊपर लिख आए हैं. इसवास्ते यह कथन युक्तियुक्त है कि, जो वेदोंका स्थापक है, सोइ नास्तिक है. अन्य नही. और यदि वेदोंके निंदकहीको नास्तिक मानोंगे, तब तो, वेदव्यास, युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, मेधावी आदि भी नास्तिक ठहरेंगे; वेदोक्त यज्ञकों न माननेसें. तथा मत्स्यपुराण, जो कि वेदव्यासका रचा कहा जाता है, और जिसका नाम महाभारतमें संक्षेपरूप वर्णनसहित लिखा है, उसमें ऐसे लिखा है.॥ (ऋषयऊचुः) कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम् ॥ पूर्व स्वायंभुवे सर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः ॥ १॥ अंतर्हितायां संध्यायां साई कृतयुगेन हि ॥ . कालाख्यायां प्रसत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा ॥२॥ औषधीषु च जातासु प्रटत्ते वृष्टिसर्जने ॥ प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च पुरेषु च ॥३॥ वर्णाश्रमप्रतिष्ठानं कृत्वा मंत्रैश्च तैः पुनः॥ संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्तितः॥ एतकृत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत् प्रचोदतम् ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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