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________________ ३०७ द्वादशस्तम्भः। यजुर्वेदके ४० मे अध्यायमें सृष्टिकर्ता ईश्वरादिका कथन है. इसकेविना अन्य कौनसा अतिउत्तम, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्षादितत्त्वोंका, वा देव गुरु धर्मादि तत्वोंका कथन वेदोंमें है ? जिसके निंदने, और न माननेसें नास्तिक कहे गए ? दूसरे मतवाले भी अपने पुस्तकोंमें ऐसा लिख सकते हैं। यथा । “ योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः ॥ स साधुभिः सदा श्लाघ्यो नास्तिको वेदस्थापकः" ॥ अर्थः ॥ जो ब्राह्मण, ' उपलक्षणसें अन्यका भी ग्रहण जानना' तर्कशास्त्रके आश्रयसे वेदस्मृतिका अनादर करे, सो साधु पुरुषोंकरके सदा श्लाघनीय होता है. क्यों कि, जो वेदका स्थापक है, सो नास्तिक है. क्यों कि, वेद महाहिंसक पुस्तक है. । उक्तं च । “पसुबहाय सव्वे वेया" अर्थात् पशुयोंके बध करनेकेवास्तेही सर्व वेदोंके पुस्तक हैं, सो कथन अज्ञानतिमिरभास्करसें देख लेना.। तथा महाभारतके शांतिपर्वके १०९ अध्यायमें लिखा है। “ अहिंसाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतं । यः स्यादहिंसासंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ १२॥ श्रुतिधर्मइति टेके नेत्याहरपरे जनाः" । इत्यादि। अर्थः॥ भूतजीवोंकी अहिंसा दयाक्नेवास्ते धर्मप्रवचन करा है, इसवास्ते जो अहिंसासंयुक्त धर्म होवे, सोइ धर्म है, ऐसा निश्चय है. ॥ [ श्रुतीति श्रुत्युक्तोर्थः सर्वो धर्म इत्यपि न श्येनादेर्धर्मत्वाभावात् । 'फलतोपि च यत्कर्म नानर्थेनानुबध्यते। केवलं प्रीतिहेतुत्वात्तद्धर्म इति कथ्यते' इतिवचनात्, श्येनादिफलस्य शत्रुवधादेरनर्थत्वादुक्तलक्षण एव धर्म इत्यर्थः। इतिटीकायाम् ॥] श्रुतिमें जो अर्थ कथन करा सोइ धर्म है, ऐसे कितनेक कहते हैं; परंतु, अपर कितनेक जन कहते हैं कि, श्रुत्युक्त जो अर्थ है, सो धर्म नहीं है; श्येनादि यज्ञोंको धर्मके अभाव होनेसें. फलसें भी, जो कर्म अनर्थके साथ संबंधवाला न होवे, किंतु केवल प्रीतिहेतु होवे, सो धर्म कहिए. इस वचनसें, श्येनादिके फलकों शत्रुवधादि अनर्थरूप होनेसें, उक्तलक्षण अर्थात् अहिंसालक्षणरूप धर्मही है. । इत्यादि। तथा महाभारतके शांतिपर्वमें १७५ अध्यायमें पितापुत्रके संवादमें ऐसा लिखा है. यथा। “ पशुयज्ञैः कथं हिंर्मादृशो यष्टुमर्हति । इत्यादि।” भावार्थ इसका यह है कि, युधिष्ठिर भीष्मजीसें पृच्छा करते हैं कि, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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