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तत्त्वनिर्णयप्रासादहै.। इससे भी यही सिद्ध होता है कि, शंकरस्वामीने भी अपने मतानुसार अटकलपच्चूसें अर्थ लिखे हैं, नतु प्राचीनग्रंथानुसार. इसवास्ते यह सर्व ग्रंथ अप्रमाणिक है, भिन्न २ रचना होनेसें.। और जो शंकरभाष्यकी सम्मति आप व्यासजीने शंकरस्वामीको दीनी लिखी है, सो शंकरभाष्यकी उत्तमता प्रसिद्ध करनेवास्ते है, सो तो स्वमतानुरागी विना अन्य कोइ भी प्रेक्षावान् नही मानेंगे. क्यों कि, सांप्रतकालमें अनेक जन वेदोंके अर्थोंका सत्यानाश कर रहे हैं तो, क्या व्यासजी सूते पडे हैं ? जो सांप्रतिकालमें आयके किसीको भी वेदोंके सच्चे अर्थ नही बतलाते हैं ! ! ! हमने जो वेदोंकी बाबत समीक्षा लिखी है, सो अपने मतके अनुराग, और वेदोंके ऊपर द्वेषकरके नही लिखी है. किंतु, यथार्थ सर्वज्ञके रचे हुए वेदपुस्तक है कि, नहीं ? इस वातके निर्णयवास्ते हमने इतना परिश्रम उठाया है.
पूर्वपक्षः--मनुजी तो मनुस्मृतिके दुसरे अध्यायमें लिखते हैं कि । “ योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः । स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ॥ ११” ॥ अर्थः । जो ब्राह्मण, हेतुशास्त्र (तर्कशास्त्र) आश्रयसें श्रुतिस्मृतिको न माने, अनादर करे, तिसको साधु पुरुषोंने बहिर निकाल देना. क्यों कि, वेदका जो निंदक है, सो नास्तिक है. इसवास्ते तुम भी नास्तिकही हो; वेदोंके निंदक होनेसें.
उत्तरपक्षः---इस कथनसें तो जैन, बौद्ध, ईसाइ, मुसलमान, यहूदी, पारसी, आदिमतोंवाले सर्व नास्तिक ठहरेंगे. क्यों कि, येह सर्व वेदोंको नही मानते हैं. तथा कितनेक वेदांती, और कितनेक सनातन धर्मीआदि भी नास्तिक ठहरेंगे; वेदोक्त यजन याजनादिके न माननेसें. तथा ऋग्वेद तो, अग्नि, इंद्र, वरुण, सोम, यम, उषा, सूर्य, मैत्रावरुण, आश्विनौ, वायु, नदीयां, समुद्र, इत्यादिककी स्तुति प्रार्थना और घोडेका यज्ञ इत्यादिसें प्रायः भरा है. और यजुर्वेद प्रायः हिंसक यज्ञोंके विधिसेंही भरा है. साम और अथर्व भी वैसे ही है.। और उपनिषदोंमें प्रायः एक ब्रह्मही. की सिद्धिकेवास्ते सर्व प्रयत्न करा है; एक ऋग्वेदके पुरुषसूक्तमें, वा
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