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दशमस्तम्भः ।
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तथा ऋ० सं० अष्टक ४ अध्याय ४ वर्ग २० में लिखा है कि- सप्तवधिनामा ऋषि था, तिसके भतीजे तिसको पेटीमें घालके मुद्रा करके बड़े यत्नसें अपने घर में स्थापन करते हुए; जैसें रात्रिमें अपनी स्त्रीसें विषय सेवन न करे, तैसें करते हुए. सवेरे २ तिस पेटीको उघाडके तिसको मारपीटके फिर पेटीमें घालके रखते भए. ऐसें चिरकालतक सो कुश और दुःखी तिस पेटीमें रहा, चिरकालतक मुनिने तिस पेटीसें निकलनेका उपाय चिंतन करा, तब हृदयमें निश्चय करके अश्विनौ देवतायोंकी स्तुति करता भया; तब अश्विनौ आए, पेटी Barse तिसको निकालके शीघ्र अदृष्ट हो गए. सो ऋषि भार्यासें विषय सेवन करके तिनके भयसें सवेरे पेटीमें प्रवेश करके पूर्वकीतरें स्थित रहा; तिस ऋषिने पेटीके निवास समयमें येह दो ऋचायों देखी, जो आगे कहेंगे. ॥ इतिभाष्यकारः ॥ अव श्रुतियां लिखते हैं.
॥ प्रथमा ॥
वि जिंहीष्व वनस्पते॒ योनि॒ः सूष्य॑न्त्या इव ।
श्रुतं में अश्विन हवँ स॒प्तव॑धं च मुञ्चतम् ॥ १ ॥ ५॥ ॥ अथद्वितीया ॥
भीताय॒ नाध॑मानाय॒ ऋष॑ये स॒प्तव॑ये । मायाभिरश्विना युवं वृक्षं सं च वि चांचथः ॥ २ ॥ ६ ॥ भावार्थ:- हे वनस्पतिके विकाररूप पेटी ! तूं स्त्रीकी योनिकीतरें चौडी हो जा, जैसें स्त्रीकी योनि संतानके जननेके समयमें चौडी हो जाती है, तैसें तूं भी हो जा. हे अश्विनौ ! तुम सप्तवधिकी विनती सुनके मूल सप्तवधिको छुडावो ! निकलते हुए डरतेको, और निकलना वांछतेको, हे अश्विनौ ! ऐसे मूझ सप्तवधिको इस पेटीसें निकालनेको आओ. ॥
अब वाचकवर्गो ! तुम देखो कि, यह परमेश्वरकी कैसी भक्तवत्सलता है कि, पेटीमें बैठे अपने भक्त सप्तवधि ऋषिको कैसी ज्ञानरसकी भरी
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