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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
॥ अथचतुर्विशी ॥
इ॒म इ॑न्द्र॒ भर॒तस्य॑ पु॒त्रा अ॑पपि॒त्वं चिकितुर्न प्र॑पि॒त्वम् । हि॒िन्वन्त्यश्व॒मरु॑ण॒ न नित्यं॒ ज्यावाज॒ परि॑ णयन्त्य॒जौ ॥ २४ ॥
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ऋ० सं० अ० ३ ॥
इन चारों ऋचायोंमें यह भावार्थ है कि, विश्वामित्रने शाप देते हुए, प्रथमार्द्ध ऋचामें तो, आत्मरक्षा करी है; आगे शाप दिया. तूं पतत् होवे, तूं मर जावे, इत्यादि । फिर इंद्रको संबोधन करा कि, हे इंद्र ! मेरा शत्रु मेरे मंत्रकी शक्ति प्रहत होके पडो, और मुखसें फेन ( झाग ) वमन करो . । प्रथम मेरा तप क्षय न हो जावे इसवास्ते शाप देनेसें हट कर मौनकर बैठे विश्वामित्रको वसिष्टके पुरुष बांध पकडके ले चले, तब विश्वामित्र तिनको कहता है, हे लोको ! नाश करनेवाले विश्वामित्रके मंत्रोंका सामर्थ्य तुम नही जानते हो ! शाप देनेसें मेरा तप न क्षय हो जावे, ऐसें विचारके मुझे मौनवंतको पशुसमान जानके बांधके इष्टस्थानमें ले जाते हो; ऐसें स्वसामर्थ्य दिखलाके कहता है कि, क्या वसिष्ठ मेरी बराबरी कर सक्ता है ? तिसके साथ स्पर्द्धा करनेसें विद्वान् लोक मेरी हांसी न करेंगे? इसवास्ते मैं वसिष्ठके साथ स्पर्द्धा नही करता हुं । हे इंद्र ! भरतके वंशके होके, क्या विश्वामित्र इनके साथ स्पर्द्धा करेंगे ? येह तो बिचारे ब्राह्मणही है. ॥
अब पाठकगणो! विचारो कि, येह श्रुतियां परमेश्वरने रची है ? क्या वसिष्ठके शाप देनेवास्ते परमेश्वरने येह श्रुतियां विश्वामित्रको दीनी थी ? क्योंकि, इस सूक्तका ऋषि विश्वामित्रही है; विश्वामित्रने तप करके ईश्वरके अनुग्रहसें येह ऋचायों संपादन करी है !! क्या कहना है दयालु परमेश्वरका !!! जिसने विश्वामित्रके तपसें संतुष्टमान होके, अपूर्वज्ञानरससें भरी हुई ऐसी २ ऋचायों प्रदान करी. लज्जा भी कहनेवालेको नही आती कि, वेद परमेश्वरके रचे हुए हैं ! इसवास्ते किसी प्रमाणसें भी वेद ईश्वरका रचा सिद्ध नही होता है.
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