SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञ, निर्विकारी, निरवयव, ज्योतिःसरूप, सच्चिदानंद, मानोंगे तब तो विद्वत्सभामें अवश्यमेव हास्यके पात्र होवोंगे; और तुमारा ईश्वर नालायक सिद्ध होवेगा. तब तो, वेदादिशास्त्रोंका वक्ता भी वैसाही होगा. जब कि, हम संसारी जीवोंकों तारनेवाले ईश्वर परमात्माकीही यह पूर्वोक्त विटंबना हो रही है तो, वो हमको किसतरें तार सक्ता है ? वा सत्पथको प्राप्त करा सक्ता है ? इसवास्ते वेदादिशास्त्र, सर्वज्ञप्रणीत नहीं है. किंतु अज्ञानीयोंके प्रलापमात्र है; परस्पर विरुद्ध, और युक्तिप्रमाणसें बाधित होनेसें. यह थोडासा वेदोंका परस्पर विरुद्धपणा बताया, इसीतरें और भी विरुद्धपणा अपनी बुद्धिद्वारा विचार लेना. इत्यलं बहुपल्लवितेन विद्वद्वर्येषु ॥ इतिश्वेताम्बराचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे वेदानां परस्परविरुद्धतावर्णनो नाम नवमस्तम्भः॥९॥ ॥ अथदशमस्तम्भारम्भः॥ नवम स्तंभमें वेदोंका परस्पर विरुद्धपणा कथन करा, अथ दशम स्तंभमें वेदकी ऋचायोंसेंही वेद ईश्वरोक्त नहीं है, ऐसा सिद्ध करेंगे. ऋग्वेदसंहिता अष्टक ३। अध्याय २॥ वर्ग १२।१३।१४॥ अतीतकालमें पैजवनके सुदासराजाका विश्वामित्र नामा पुरोहित होता भया, तिसने पुरोहित होनेसें बहुत धन पाया, सो सर्व धन लेके शतद्रू और विपाट अर्थात् सतलुज और वियासानदीयोंके संगमऊपर आया. अथ विश्वामित्र तिनसे पार उतरनेकी इच्छावंत, नदीयोंको अगाध जल. पाली देखके उतरनेवास्ते आदिकी तीन ऋचायोंकरके तिन नदीयोंकी स्तुति करता भया. और ४।६। ८।१०। इन चार ऋचायोंमें नदीयोंने जो कुछ विश्वामित्रकेतांइ कहा, तिसका कथन है. छठी सातमीमें इंद्रकी स्तुति है. इतिभाष्यकारः। प्रपर्वतानामुशतीइत्यादि १३ ऋचा है ॥ सोही लिख दिखाते हैं.॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy