________________
૨૩૨
तत्त्वनिर्णयप्रासाद
चंद्रमा॒ मन॑सो जा॒तश्चक्षि॒ः सूर्योऽअजायत । श्रोत्रा॑हा॒युश्च॑ प्रा॒णश्च॒ मुखद॒ग्निर॑जायत ॥ १२ ॥ वा० सं० अ० ३१॥
भाषार्थः - प्रजापतिके मनसें चंद्रमा उत्पन्न भया, चक्षु (नेत्रों) सें सूर्य उत्पन्न भया; वायु, और प्राण, ये दो, कानोंसें उत्पन्न भए; और अग्नि मुखसें उत्पन्न भया. ॥ १२ ॥
[समीक्षा] इस श्रुतिमें लिखा है कि, वायु और प्राण ये दोनों श्रोत्रसें अर्थात् कर्ण (कानों) सें उत्पन्न भए. और ऋग्वेदके आठमे अष्टकमें लिखा है कि, प्राण वायु उत्पन्न भया । तथा इसश्रुतिमें लिखा है कि, मुखसें अग्नि भया, और ऋग्वेद में लिखा है कि, प्रजापतिके मुखसें इंद्र और अग्नि, ये दोनों उत्पन्न भए । यजुर्वेद में इंद्रकी उत्पत्ति मुखसें नही कही है, और ऋग्वेद में कही है; यह परस्पर विरुद्धपणा है. ॥
*अदितिर्वै प्रजाकामौदनमपचत् तत उच्छिष्टमश्नात् । सा गर्भमधत्त । तत आदित्या अजायन्त ॥
इतिगोपथपूर्व भागे० प्र० २ ब्रा०२५ ॥
भावार्थ:- (अदिति) वै, यह निश्चयार्थक अव्यय है, अर्थात् निश्चयअर्थका बोध करता है. (अदितिर्वै प्रजाकामौदनमपचत् ) अदितिनें प्रजा अर्थात् संतानकी उत्पत्तिकेलिये ( ओदन ) अर्थात् ब्रह्मौदन पकाया. ( तत उच्छिष्टमश्नात् ) तिसमेसें उच्छिष्ठ अर्थात् बचा हुआ जो यज्ञका शेषभाग उसको (अनात् ) उसने खा लिया. ( सा गर्भमधत्त ) उसके खानेसें अदिती गर्भको धारण करती भई. ( तत आदित्या अजायन्त ) तिस गर्भसें द्वादश आदित्य उत्पन्न हुए. इति ॥
[समीक्षा] इस श्रुतिमें लिखा है कि, अदितिनें यज्ञका रहा शेष अन्न भक्षण करनेसें गर्भ धारण करा; यह भी प्रमाण बाधित है. क्योंकि, विना पतिके संयोग सें, वा योनिमें वीर्य के प्रक्षेपविना, कदापि स्त्री गर्भ
* इसही मतलबका वर्णन तैत्तिरीयब्राह्मण के १ अष्टकके १ अध्यायके ९ अनुवाकमें है ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org