SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० तत्त्वनिर्णयप्रासाद तिसका एक पति कथन करना था, ऋतुकालमें तिस परमात्मारूप स्त्रीसें भोग - वीर्यनिषेक करना, पीछे गर्भ धारण करना, पीछे प्रजापति ब्रह्माजीका जन्म, इत्यादि कथन करते तो तुमारी कुछक किंचिन्मात्र अलंकारकी आकांक्षा भी पूर्ण होती. परंतु ऐसें है नही, इसवास्ते यह अलंकार भी नही है . हे पाठकगणो ! तुम पक्षपातको छोड़ कर, और जरा नेत्र उन्मीलन करके विचार तो करो कि सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रैलोक्यनाथ, करुणासमुद्र, कृतकृत्य अष्टादशदूषणरहित, परमात्मा, वीतरागका उपहास्य योग्य, और युक्तिप्रमाण बाधित, ऐसा कथन हो सक्ता है ? कदापि नही हो सक्ता है. ऐसी२ मिथ्या कल्पनाजाल खड़ी करके भव्य जीवोंको फसाय २ के अज्ञानीयोंने अपने वशप्रायः कर लिए हैं ! ! ! ऊपर जो समीक्षा करी है, सो ऋगादिभाष्यभूमिकेंदुनामक पुस्तकमें लिखे अर्थानुसार है. अब महीधरकृत वेददीप भाष्यमें जो अर्थ लिखा है, सो लिखते हैं. (ह) प्रसिद्धार्थमें है ( प्रथम ) सर्वका आदि आद्यंतरहित पुरुष ( महति अर्णवे ) कल्पांतकालसमुद्र में (अंतः ) मध्यमें ( गर्भ दधे ) गर्भको स्थापन करता भया. कैसा पुरुष ? (सुभूः ) भली भूः - उत्पत्ति होवे जिससे सो सुभूः अर्थात् विश्व-जगत् उत्पन्न करनेवाला ( स्वयंभूः ) स्वयंभवतीति स्वयंभूः स्वेच्छाधृतशरीरः - अपनी इच्छासें शरीर धारण करनेवाला. कैसा है गर्भ ? (ऋत्वियं) ऋतुः प्राप्तोयस्य ऋतु प्राप्त हुआ है जिसको अर्थात् प्राप्तकालम् ( यतः ) जिस गर्भसें ( प्रजापतिः) ब्रह्मा ( जात: ) उत्पन्न भया - इति ॥ ६३ ॥ समीक्षाप्रायः पूर्ववत् ॥ अब दयानंदस्वामीका भी अर्थमात्र पूर्वोक्तश्रुतिका लिखते हैं ॥ हे जिज्ञासुजन ! ( यतः ) जिस जगदीश्वरसें (प्रजापतिः) विश्वका रक्षक सूर्य (जातः ) उत्पन्न हुआ है और जो (सुभूः ) सुंदर विद्यमान ( स्वयंभू ) जो अपने आप प्रसिद्ध उत्पत्ति विनाश रहित ( प्रथमः ) सबसें प्रथम जगदीश्वर (महति ) बडे विस्तृत ( अर्णवे ) जलोंसें संबद्ध हुए संसारके (अंतः) बीच (ऋत्वियम् ) समयानुकूल प्राप्त ( गर्भम् ) बीज - को (दधे ) धारण करता है (ह) उसीकी सबलोग उपासना करें ॥ ६३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy