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________________ २३४ तत्त्वनिर्णयप्रासाद और (i) प्रकाशसहित सूर्यादिलोकोंको ( दाधार ) धारण करता हुआ उस (कस्मै ) सुखरूप प्रजा पालनेवाले (देवाय ) प्रकाशमान परमात्माकी ( हविषा ) आत्मादिसामग्रीसें (विधेम ) सेवामें तत्पर हैं वैसे तुम लोग भी इस परमात्मा का सेवन करो ॥ ४ ॥ - १ भावार्थ:-- हे मनुष्यो ! तुमको योग्य है कि इस प्रसिद्ध सृष्टि रचनेसें प्रथम परमेश्वरही विद्यमान था, जीव गाढनिद्रा- सुषुप्ति में लीन थे, जगतुका कारण अत्यंत सूक्ष्मावस्था में आकाशकेसमान एक रस स्थिर था, जिसने सब जगत्को रचके धारण किया और अंत्यसमय में प्रलय करता है, उसी परमात्माको उपासनाके योग्य मानो ॥ ४ ॥ -२ तथा सत्यार्थप्रकाश सप्तमसमुलासे - हे मनुष्यो ! जो सृष्टिके पूर्व सब सूर्यादि तेजवाले लोकोंका उत्पत्तिस्थान आधार और जो कुछ उत्पन्न है, हुआ था, और होगा उसका स्वामी था, है, और होगा; वह पृथिवीसें लेके सूर्यलोकपर्यंत सृष्टिको बनाके धारण कर रहा है, उस सुखस्वरूप परमामाहीकी भक्ति जैसें हम करें वैसें तुम लोग भी करो ॥ १॥ - ३ तथाचाष्टम समुल्लासेपि - हे मनुष्यो ! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थोंका आधार और जो यह जगत् हुआ है, और होगा उसका एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत्की उत्पत्तिके पूर्व विद्यमान था और जिसने पृथि - वीसें लेके सूर्यपर्यंत जगत्को उत्पन्न किया है, उस परमात्मा देवकी प्रेमसें भक्ति किया करें ॥ ३ ॥ -४ तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकायां सृष्टिविद्याविषये हिरण्यगर्भ जो परमेश्वर है वही एक सृष्टिके पहिले वर्तमान था, जो इस सब जगत्का स्वामी है और वही पृथिवीसें लेके सूर्यपर्यंत सब जगत्को रचके धारण कर रहा है, इसलिये उसी सुखस्वरूप परमेश्वर देवकीही हम लोग उपासना करें, अन्यकी नहीं ॥ १ ॥ -५ [समीक्षा] पूर्वोक्त पांचप्रकारके अर्थोंको यदि शोचे जावे तो, स्वामी दयानंदजीके अर्थ मनःकल्पित गप्परूपसें और कुछ भी सिद्ध नही कर सक्ते हैं. वाहजी ! वाह !! अर्थ क्या ठहरें, गुड्डीयोंका खेल हुआ, जो मनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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