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नवमस्तम्भः ।
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आया सो मान लिया. अपरंच स्वामी दयानंदजीने अपने मनः कल्पित मतको दृढ करनेकेलिये अर्थ तो उलटे लिये, परंतु शोचा नही कि यह अर्थ हमारे इष्टको बाधक है कि साधक ? क्योंकि, दयानंदजीकी प्रतिज्ञा है कि, वेद ईश्वरोक्त है, तो, अब शोचना चाहिये कि, यदि वेद सत्य २ ईश्वरोक्तही है तो, जो दयानंदजीने श्रुतिका अर्थ लिखा है कि “हे मनुष्यो ! जैसें हम सेवामें तत्पर हैं, वैसें तुम लोग भी इस परमात्माका सेवन करो.” क्या दयानंदजीके ईश्वरसें भी कोइ बडा परमा
है ? जिसकी सेवा में वेदवक्ता ईश्वर भी तत्पर है, और लोगोंको उपदेश करता है. तथा वेदके कथन करनेवाले ईश्वर भी बहोत सिद्ध होते हैं ( विधेम ) हम तत्पर हैं, ऐसें बहुवचन अंगीकार करनेसें. यदि कहो कि, वेद प्राप्त करनेवाले ऋषियोंका यह कहना है कि, जैसें हम परमात्माकी सेवा में तत्पर हैं, वैसें तुम लोग भी परमात्माका सेवन करो. तब तो सिद्ध हुआ कि, वेद ईश्वरोक्त नही, किंतु ऋषिप्रणित है. अपरंच ऋषियोंने पूर्वोक्त वर्णन किया कि, जो परमात्मा सृष्टिका कर्त्ता, धर्ता, और पालक है जो सृष्टिसें पहिले एक सहायकी अपेक्षारहित था इत्यादि; तो क्या ऋषियोंने यह सर्व व्यवस्था जान लीनी ? यदि जान लीनी तो, वे ऋषि सर्वज्ञ हुए; यदि वे सर्वज्ञ हुए तो, फेर दयानंदजीका जो मानना है कि, ईश्वरव्यतिरिक्त कोइ भी जीव सर्वज्ञ नही हो सक्ता है, सो कैसें सत्य होगा ? और यदि नही जान लीनी तो, विना जाने तिन ऋषियोंने पूर्वोक्त वर्णन कैसें करा ?
तथा वेद, सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन, सृष्टिकी उत्पत्ति करनेवालेका वर्णन, जिन ऋषियोंको वेदज्ञान प्राप्त भया, लोकोंको उपदेशादि वर्णन हैं, तो इसमें सिद्ध हुआ कि, वेद्र सृष्ट्यादिके अनंतरही बने हैं. क्योंकि, स्वामी दयानंदजी सत्यार्थप्रकाशके सप्तम समुल्लासमें लिखते हैं कि" इतिहास जिसका हो उसके जन्मके पश्चात् लिखा जाता है वह ग्रंथ भी उसके जन्मे पश्चात् होता है - इत्यादि" ॥ यदि ऐसें हुआ तो, वेदोंका अनादिपणा ऐसा हुआ, जैसा कि वंध्यास्त्रीके पुत्रका विवाह होना.
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