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________________ अष्टमस्तम्भः । २२३ इस मक कोइ पदार्थ नही है, वेदकी श्रुति में भी ऐसाही लेख है . - - * “विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति - - " विज्ञान आत्माही इन दृश्यमान भूतोंसें उत्पन्न हो कर तिनके विनाश होते थके अनुपश्चात् विज्ञानघन भी नाशकों प्राप्त होता है, वास्ते प्रेत्य संज्ञा नही है, अर्थात् मरके परलोकमें कोइ जाता नही है, इसवास्ते परलोककी संज्ञा नही है - तथा हम सच कहते हैं कि, न कोई ईश्वर है, और न कोई उसकी वाणी है, किंतु सब ग्रंथ बुद्धिमानोंने अपनी बुद्धिकी अनुसार रचे हुए हैं--पूर्वाचार्यांने ईश्वरनाम एक कल्पित शब्द मंदबुद्धों के कान में इस कारणसें डाला था कि उसके भय और प्रेमसें लोक शुभाचार में प्रवृत्त और अशुभाचार सें निवृत्त हो कर परस्पर सुख लिया करें, परंतु अब इस शब्दने संसारमें बडाभारी अनर्थ कर छोडा है; इत्यादि – यदि पूर्वाचार्यों भेदवादियोंके अनर्थरूप ग्रंथ जगत् में विद्यमान न होते कि, जिनके पढनेसें लोक ईश्वरादिके बोझसें दबाये जाते, और सारा आयु उससे त्राण नही पाते तो, ऐसे (सत्यामृतप्रवाहसदृश ) ग्रंथोंका लिखना आवश्यक नही था, इत्याद परा विद्याका रहस्य लिखा है ॥ इस समय में निर्मले साधुआदि प्रायः जे पूरेपूरे वेदांति हैं, तिनमेंसें अत्यंत aria अभ्यास करनेवालोंने वेदांतका तत्व जानकर पंजाब देशमें रोड्डे, और चक्कटेके नामसें पंथ निकालके उपर कही पंडित श्रद्धारामजी - वाली परा विद्याका लोकोंकों उपदेश करते फिरते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि, जे कोइ वेदमतवाले इस ब्रह्मांडका उपादान कारण ब्रह्म मानते हैं, वेही असल पूर्वोक्त नास्तिकमतके बीजभूत है. क्योंकि उपादान कारण अपने कार्य भिन्न नही होता है, जैसें मृत्तिका घटसें. इसवास्ते परमा योंके विना भूमिसृजन, और जीवों के शरीरादिकोंका उत्पन्न होना मानना है, सो मिथ्या है; अंत नास्तिक होनेसें. देवतायोंने मानस यज्ञ करा तिस मानस यज्ञसें अनेक वस्तुयोंकी कल्पना उत्पत्ति लिखी है, सो भी मिथ्या है; प्रमाणयुक्तिसें बाधित होनेसें. बृहदारण्यके चतुर्थाध्याये चतुर्थ ब्राह्मणे ॥ १२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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