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________________ अष्टमस्तम्भः । २२१ ऐसाही कथन यजुर्वेदमें है. प्रजापतिके मनसें चंद्रमा उत्पन्न हुआ, नेत्रोंसें सूर्य उत्पन्न भया, मुखसें इंद्र और अग्निदेवते उत्पन्न भए, प्राणोंसें वायु उत्पन्न भया, प्रजापतिकी नाभिसें आकाश उत्पन्न भया, शिरसे स्वर्ग उत्पन्न भया, पगोंसें भूमि उत्पन्न भई, और कानोंसें दिशायां उत्पन्न भई, वह ऋग्वेदके कथनानुसार सृष्टि होनेका क्रम कहा. ___ अब पूर्वोक्त सृष्टिक्रमको प्रमाणयुक्तिसें समीक्षापथमें लाते हैं। प्रथम तो एक निरवयव ब्रह्मके चार अंश कथन करने मिथ्या है, एक अंशने क्या पाप करा ? जो अनादि अनंत मायाकरके संयुक्त सृष्टि और प्रलय करता है, और आपही संसारी होके नानाप्रकारके जरा मृत्यु रोग शोक क्षुधा तृषा नरक तिर्यगादिरूपोंसें महासंकट दुःख भोग रहा है; और तीन अंश सदा मुक्त ब्रह्मानंदमें मग्न हो रहे हैं, क्या एक ब्रह्ममें मुक्त और संसार एककालमें संभव हो सक्ते है ? आपही सृष्टि रचके आत्मघाती है, उपदेश किसकों करता है? और वेद किसवास्ते रचता है? क्योंकि, तिसकी तो सदाही दुर्दशा रहती है. और व्यास शंकरस्वामीप्रमुख सर्व वेदांती जब ब्रह्मज्ञानी होके ब्रह्ममें लीन होते हैं, तब तीन अंशोंमें लीन होते हैं कि, एक चौथे अंशमें ? जेकर तीन अंशमें लीन होते हैं, तब तो यह जो श्रुतिमें लिखा है कि, त्र्यंश तो सदाही संसारकी मायासे अलग रहते हैं; तब तो वेदांतीयोंके मिलनेसें तीन अंशोंमें निर्मल ब्रह्म अधिक हो जावेगा, और चौथा मायावाला अंश न्यून हो जावेगा. जब दोनों हिस्से वधे घटेंगे, तब तो ब्रह्ममें अनित्यतारूप दूषण उत्पन्न होवेगा. जेकर मायावान् चौथे हिस्सेरूप ब्रह्ममें लीन होते हैं, तब तो गर्दभके स्नानतुल्य वेदांतीयोंकी मुक्ति सिद्ध होवेगी. जैसे किसीने गर्दभकों स्नान करवाया, तदपीछे सो गर्दभ कुरडीकी राखमें जाके फेर लौटने लगा, फेर वैसाही मलीन हो गया; ऐसेंही वेदांतियोंने प्रथम तो ब्रह्मविद्यारूप जलसें स्नान करके प्रपंच धोयके निर्मलता प्राप्त करी, फेर मायावाले ब्रह्ममें लीन होनेसें फेर वैसेही मायाप्रपंचवाले बन गए. पूर्वपक्षः-शुद्ध ब्रह्ममेंही लीन होते हैं, नतु मायावान्में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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