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________________ (१४) भवनएवोर्वरितशरीरमात्रपरिग्रहः उन्मत्तइवगगनपरिधानः प्रकीर्णकेशः आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात्प्रवव्राज ॥ अर्थः-वह ऋषभदेव भगवान् इस प्रकार अपने बेटोंको समझाकर उनक बेटे यद्याप आपही ज्ञानवान हैं तो भी लोकरीतिके अर्थ समझाकर महात्मा परम मित्र भगवान ऋषभदेव शांति परिणामी नाश किया है कर्म जिन्होनें, भक्तिवान् ज्ञानवान् वैरागी महा मुनीश्वरोंको परमहंस धर्मका उपदेश देते हुवे और सौ (१००) बेटोंमें बड़े मनुष्योंमें तत्पर ऐसे भरतको पृथ्वीके पालनेके वास्ते राज्य देकर और आप केवल शरीरमात्र परिग्रह रखकर केश लोंचकर नग्न आत्मामें स्थापन किया है ब्रह्मस्वरूप जिन्होंने, उन्मत्तकी तुल्य पृथ्वीपर भ्रमण करते संते हमारी रक्षा करो ॥ __॥ भर्तृहरिशतक, वैराग्य प्रकरण ॥ एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्द्धधारी हरो। नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्परः॥ दुर्वारस्मरबाणपन्नगविषव्यासक्तमुग्धो जनः। शेषः कामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुं न मोक्तुं क्षमः ॥ * अर्थ:-बडी प्यारी गौरीके आधे देहको धारण किये हुवे रागी पुरुषों में एक शिवही शोभता है और बीतरागियों में ऐसे जिनदेवसे बढकर और कोई नहिं है, जिन्होंने स्त्रियोंके संगकोही छोडदिया है। इन दोनोंसें जो भिन्न पुरुष है, जो दुर्वार कामदेवके बाणरूपी सोका विषके चढनेसें पागल हुए कामसे ठगे है, वे पुरुष न विषयोंके छोडनेको समर्थ है और न भोगनेको समर्थ है। भावार्थ:-इसमें शिवको परम रागी और जिन भगवान अर्थात् जैनियोंके देवताको परम वीतरागी कहकर प्रशंसा की है और राग अर्थात् विषयभोगकी निन्दा की है। ॥ योगवासिष्ट प्रथम वैराग्य प्रकरण ॥ राम उवाच । नाहं रामो न मे वाञ्छा भावेषु च न मे मनः। शान्तिमास्थातुमिच्छामि चात्मन्येव जिनो यथा ॥ अर्थः--रामजी बोले कि न में राम हूं, न मेरी कुछ इच्छा है, और न मेरा मन पदार्थों में है। केवल यह चाहता हूं जिन देवकी तरह मेरी आत्मामें शान्ति हो. भावार्थ:--रामजीने जिन समान होनेकी बांच्छा करी, इससे विदित है कि जिनदेव रामजीसे पहले और उत्तमोत्तम है. *यदि पुराने छपे भर्तृहरिके ग्रंथों में यह श्लोक विद्यमान है, परंतु ईसमें जिन देवकी स्तुति होनसे नये छपे ग्रंथोंमेंसे जानके निकाला गया है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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