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________________ (१२) अर्थ:--युग २ में द्वारिकापुरी महा क्षेत्र है, जिसमें हरिका अवतार हुवा है जो प्रभास क्षेत्रमें चन्द्रमाकी तरह शोभित है । और गिरनार पर्वतपर नेमिनाथ और कैलाश (अष्टापद) पर्वतपर आदिनाथ अर्थात् ऋपभदेव हुए हैं। यह क्षेत्र ऋषियोंके आश्रम होनेसें मुक्ति मार्गके कारण है ॥ भावार्थ-श्री नेमिनाथस्वामी भी जैनियोंके तीर्थकर है और श्रीऋषभनाथको आदिनाथ भी कहते हैं, क्योंक वह इस युगके आदि तीर्थकर है ॥ ॥ श्री नागपुराण ॥ दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः। नीतित्रयस्य कर्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः॥ सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वदेवनमस्कृतः। छत्रत्रयीभिरापूज्यो मुक्तिमार्गमसौ वदन् । आदित्यप्रमुखाः सर्वे बद्धांजलिभिरीशितुः । ध्यायांत भावतो नित्यं यदंघ्रियुगनीरजम् ॥ कैलासविमले रम्ये ऋषभोयं जिनेश्वरः। चकार स्वावतारं यो सर्वः सर्वगतः शिवः॥ अर्थः--वीर पुरुषोंको मार्ग दिखाते हुये सुर असुर जिनको नमस्कार करते हैं जो तीन प्रकारकी नीतिके बनानेवाले हैं, वह युगके आदिमें प्रथम जिन अर्थात् आदिनाथ भगवान हुए. सर्वज्ञ (सवको जाननेनाले, ) सबको देखनेवाले, सर्व देवोंकरके पूजनीय, छत्रत्रयकरके पूज्य, मोक्षमार्गका व्याख्यान कहते हुए, सूर्यको आदि लेकर सब देवता सदा हाथ जोडकर भाव सहित जिसके चरणकमलका ध्यान करते हुए ऐसे ऋषभ जिनेश्वर निमेल कैलास पर्वतपर अवतार धारण करते भये जो सर्वव्यापी हैं और कल्याणरूप हैं । भावार्थ:-जिन अर्थात् जिनेश्वर भगवानको कहते हैं जिनभाषित अर्थात् भगवा. नका कहा हुवा मत होने के कारण जैनमत कहलाता है । उपरोक्त श्लोकोंमें श्रीऋषभनाथ अर्थात् आदिनाथ भगवान्को जिनेश्वर कहकर महिमा की है ॥ ॥शिवपुराण ॥ अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ॥ अर्थः-अडसठ (६८) तीर्थों की यात्रा करनेका जो फल है, उतना फल श्री आदि. नाथके स्मरण करनेहीसे होता है.। ॥ऋग्वेद ॥ ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितानां चतुर्विंशतितीर्थकराणां । ऋषभादिवर्द्धमानान्तानां सिद्धानां शरणं प्रपद्ये ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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