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________________ हास तिमिरनाशक" ग्रंथका प्रमाण देकर कहते हैं कि जैनधर्म बौद्धकी शाखा है; परंतु सन १८७३ में उनोंने ऐक पत्र बनारससे पंजाबका गुजरांवाला शहरके जैन समुदायपर लिखा था उसमें लीखा है, कि “जैन, बौद्ध मत एक नही है,सनातनसे भिन्न भिन्न चले आये हैं, जर्मनी देशके एक बड़े विद्वानने इसके प्रमाणमें एक ग्रंथ छापा है." वगैरेह बहोत प्रमाण हैं. कहांतक लिखा जाय ? उपर लिखे जैनकी प्राचीनताके कितनेक वेदाद प्रमाण मोक्षमार्ग प्रकाश आदि ग्रंथानुसार लिखे जाते हैं. ॥ श्री भागवत ॥ नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्यतद्रचनयाचिरसुप्तबुद्धेः । लोकस्ययोकरुणयोभयमात्मलोकमाख्यान्नमोभगवतेऋषभायतस्मै ॥ अर्थः--उस ऋषभदेव (जैनोंकेप्रथम तर्थिकर ) को हमारा नमस्कार हो. सदा प्राप्त होने वाले आत्मलाभसें जिसकी तृष्णा दूर होगई है, और जिन्होंने कल्याणके मार्गमें झूठी रचनाकरके सोते हुए जगतकी दया करके दोनों लोकके अर्थ उपदेश किया है ॥ ॥ श्री ब्रह्माण्डपुराण ।। नाभिस्तु जनयेत्पुत्रं मरुदेव्यां मनोहरम् । ऋषभं क्षत्रियश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वकम् ॥ ऋषभाद्भारतोजज्ञे वीरपुत्रशताग्रजः। राज्येऽभिषिच्य भरतं महाप्राज्यमाश्रितः ॥ अर्थ:--नाभिराजाके यहां मरुदेवीसे ऋषभ उत्पन्न हुए जिनका बडा सुंदर रूप है, जो क्षत्रियों में श्रेष्ठ और सब क्षत्रियोके आदि हैं । और ऋषभके पुत्र भरत पैदा हुवा जो वीर है और अपने सौ (१००) भाईयोंमें बड़ा है । ऋषभदेव भरतको राज देकर महा दीक्षाको प्राप्त हुए अर्थात् तपस्वी होगये ॥ भावार्थ:--जैन शास्त्रों में भी यह सब वर्णन इसही प्रकार है । इससे यह भी सिद्ध हुवा कि जिस ऋषभदेवकी महिमा वेदान्तिओंके ग्रन्थों में वर्णन की है, जैनी भी उसही ऋषभदेवको पूजते हैं, दूसरे नहीं.. ॥ श्री महाभारत ॥ युगेयुगे महापुण्यं दृश्यते द्वारिका पुरी । अवतीर्णो हरिर्यत्र प्रभासशशिभूषणः ॥ रेवताद्रौजिनोनेमियुगादिर्विमलाचले। ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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