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तत्त्वनिर्णयप्रासादकृमिकीटपतङ्गांश्च यूकामक्षिकमत्कुणम् ॥ सर्व च दंशमशकं स्थावरं च पृथग्विधम् ॥४०॥ एवमेतैरिदं सर्व मन्नियोगान्महात्मभिः॥
यथा कर्मतपोयोगात् सृष्टं स्थावरजंगमम्।४१०म० अ०१ व्याख्या--(इदं) यह जगत्, तममें (स्थित) लीन था, प्रलयकालमें सूक्ष्मरूपकरके प्रकृतिमें लीन था, प्रकृतिभी ब्रह्मात्मकरके (अव्याकृत) अलग नही थी, इसवास्तेही (अप्रज्ञातं) प्रत्यक्ष नही था,(अलक्षणं) अनुमानका विषयभी नहीं था, (अप्रतयं) तर्कयितुमशक्यं तदा वाचक स्थूलशब्दके अभावसे इसवास्तेही अविज्ञेय था, अर्थापत्तिकेभी अगोचर था, इसवास्ते (प्रसुप्तमिव सर्वतः ) सर्वओरसे सूतेकीतरें स्वकार्य करणे असमर्थ था. ॥ ५॥ अथ क्या होता भया सो कहे हैं. तब प्रलयके अवसानानंतर खयंभू परमात्मा (अव्यक्त) बाह्यकरण अगोचर (इदं) यह महाभूत आकाशादिक आदिशब्दसे महदादिकोंकों (व्यंजयन् अव्यक्तावस्थं) प्रथम सूक्ष्मरूपकरके रहेको स्थूलरूपकरके प्रकाश करता हुआ, (वृत्तौजाः) सृष्टि रचनेका सामर्थ्य अव्याहत है जिसका, (तमोनुदः) प्रकृतिका प्रेरक॥६॥जो सो (अतींद्रियग्राह्य) ईश्वर सूक्ष्म बायेंद्रियअगोचर (अव्यक्त) अवयवरहित (सनातन) नित्य (सर्वभूतमय) सर्वभूतात्मा इसवास्तेही (अचिंत्य) इतना है ऐसा न जाननेसें अचिंत्य है, सो परमात्माही आप महदादिकार्यरूपकरकेप्रकट हुआ. ॥७॥ सो परमात्मा नानाविध प्रजा रचनेकी इच्छावाला 'अभिध्यायापो जायंतां' ऐसें अभिध्यानमात्रकरकेही ( अप् ) पाणी प्रथम उत्पन्न करता भया, तिस पाणीमें शक्तिरूपबीजकों आरोपित करता भया॥८॥ सो बीज परमेश्वरकी इच्छासें सुवर्णसदृश अंडा होता भया, सूर्यसमान जिसकी प्रभा है, तिस अंडेमें (हिरण्यगर्भ) ब्रह्मा सर्वलोकोंका पितामह आपही उत्पन्न भया ॥ ९ ॥ पाणीका नाम नारा है, क्योंकि, पाणी जो है सो नरनाम परमात्मा ईश्वरके अपत्य-पुत्र है, सोही (नारा) पाणी इस ब्रह्मरूप परमात्माका (अयन) आश्रय है, इसवास्ते परमात्माको नारायण
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