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________________ पञ्चस्तम्भः। कर्मानुभावनिम्मितनैकाकृतिजीवजातिगहनस्य ॥ लोकस्यास्य न पर्यवसानं नैवादिभावश्च ॥ ३६॥ व्याख्या-कमों के अनुभावसमर्थसें जीवोंकी अनेक आकृति बन रहीहै, तिस अनेकाकृतीसंयुक्त जीवोंकी जाति, योनियोंकरके गहन इसलोकका कदापि पर्यवसान (छेहडा) नहीं है, और आदिपणाभी नहीं है. ॥३६॥ तस्मादनाद्यनिधनं व्यसनोरुभीमं जन्मारदोषदृढनेम्यतिरागतुम्व्यम् ॥ घोरंस्वकर्मपवनेरितलोकचक्रं । भ्राम्यत्यनारतभिदं हि किमीश्वरेण॥ ३७॥ - इति श्रीमद्धरिभद्रसरिकृत लोकतत्त्वनिर्णयः ॥ व्याख्या-तिसवास्ते अनादि, अनंत और कष्टोंकरके भयजनक' जन्मरूप अरे! दोषरूप दृढ चक्रकी नेमीधारा है, रागरूप तुंब घोर नाभी है, अपने २ कर्मरूप पवनका प्रेरा हुआ लोकचक्र निरंतर भ्रमण करता है, तो फेर ईश्वर कर्त्ताकी कल्पना करनेसे क्या लाभ है? कुछभी नहीं है. नि:केवल अज्ञानियोंके अज्ञानकी लीला है, जो कि, जगत्का कर्त्ता ईश्वर मानना ॥ ३७॥ इति श्रीमद्धरिभद्रसूरिकृतलोकतत्त्वनिर्णयस्य बालावबोधः ॥ श्रीभत्तपोगणेशेन विजयानंदसूरिणा ॥ कृतोबालावबोधोयं परोपकृतिहेतवे ॥ १ ॥ इंदुबाणांकचन्द्राब्दे मधुमासे सिते दिले ॥ त्रयोदश्यां तिथौ बुधघस्र पूर्तिमगात्तथा ॥ २॥ सर्व श्री संघसें हम नम्रतापूर्वक विनती करते हैं कि, महादेवस्तोत्र, अयोगव्यवच्छेद, और लोकतत्त्वनिर्णय नामक ग्रंथोंकी टीका तो हमकों मिली नहीं है, केवल मूलमात्र पुस्तक मिले हैं, सोभी प्रायः अशुद्धसें है, परंतु कितनेक मुनियोंकी प्रार्थनासे यह बालावबोधरूप किंचिन्मात्र भाषा लिखी है; इनमें ग्रंथकारके अभिप्रायसें जो कुछ अन्यथा लिखा होवे, वा जिनाज्ञासें विरुद्ध लिखा होवे तो, मिथ्यादुष्कृत हमकों होवे; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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