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________________ १७६ तत्त्वनिर्णयप्रासादअद्धाचक्रमनीशं ज्योतिश्चक्रं च जीवचक्रं च ॥ नित्यं पुनति लोकानुभावकर्मानुभावाभ्याम् ॥ ३२॥ व्याख्या-अद्धाचक्र (कालचक्र) जो लोकमें वर्त्तता है, सो ईश्वरकृत नहीं है, ऐसेंही ज्योतिश्चक्र और जीवचक्र जानने; ये तीनों चक्र नित्य सदाही लोककी अनादि मर्यादाकरके, और जीवोंके शुभाशुभ कर्मोंके अनुभावसामर्थ्यकरके, प्रवर्त्त रहे है, नतु ईश्वरकी प्रेरणासें. ॥३२॥ चंद्रादित्यसमुद्रास्त्रिष्वपि लोकेषु नातिवर्त्तते ॥ प्रकृतिप्रमाणमात्मायमित्युवाचोत्तमज्ञाता ॥ ३३ ॥ व्याख्या-चंद्र, सूर्य, समुद्र, ये, तीनो लोकमें जो अपनी मर्यादाका उल्लंघन नही करते है, यह भी अनादि लोकस्थिति, और जीवोंके कर्मोंहीके प्रभावसे है. और प्रकृति अर्थात् देहप्रमाणव्यापक यह आत्मा है, ऐसें उत्तमज्ञानवान् कहते भए हैं ॥ ३३ ॥ सर्वाः पृथिव्यश्च समुद्रशैलाः सस्वर्गसिद्धालयमंतरिक्षम् ॥ अश्वत्रिमः शास्वत एष लोक अतो बहिर्यत्तदलौकिकं तु॥३४॥ व्याख्या सर्व पृथिवी, समुद्र, पर्वत, स्वर्ग (देवलोक) और सिद्धालय मुक्ताकाशचिदाकाशसहित अंतरिक्ष आकाश, ये सर्व, तिनमें कितनेक तो स्वरूपसें अनादि है, और कितनेक प्रवाहसें अनादि है, इसवास्ते ई. श्वरकृत नही है; किंतु यह लोक शाश्वत है, और इस लोकसें जो बाहिर है, सो अलोक है, निःकेवल आकाशमात्र है. ॥ ३४ ॥ प्रकृतीश्वरौ विधानं कालः सृष्टिविधिश्च दैवं च ॥ इति नामधनो लोकः स्वकर्मतः संसरत्यवशः ॥ ३५॥ व्याख्या-प्रकृति, ईश्वर, विधान, काल, सृष्टि, विधि, दैव ये सर्व लोकके नाम है; इसलोकमें संसारी जीव अपने २ कर्मोकरके भ्रमण करता हैं, नतु स्ववशसें. ॥ ३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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