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पश्चमस्तम्भः ।
ज्ञानचरित्रादिगुणैः संसिद्धाः शाश्वताः शिवाः सिद्धौ ॥ तनुकरणकर्म्मरहिता बहवस्तेषां प्रभुर्नास्ति ॥ २८ ॥
व्याख्या - ज्ञानदर्शनचारित्रादिगुणोंकरके जे संसिद्ध है, और जे मुक्तिमें शाश्वत शिवरूप है, और शरीर इंद्रियकर्मोकरके रहित है, ऐसे अनंत आत्मा, सामान्यरूपसें एक, और विशेषरूपकरके अनंत, ऐसे तिन सिद्धों का कोइ प्रभु ईश्वर नही है, किंतु आपही ज्योतिःस्वरूप है. ॥ २८ ॥
कर्म्मजनितं प्रभुत्वं संसारे क्षेत्रतश्च तद्भिन्नम् ॥ प्रभुरेकस्तनुरहितः कर्त्ता च न विद्यते लोके ॥ २९ ॥
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व्याख्या - कर्मसंयुक्तकर्मजनित जो प्रभुषणा है, सो संसारमें है, राजादि; और क्षेत्र विचारिए तो, उर्द्ध अधो तिर्यक् लोक में है; परंतु इस जगतसें भिन्न, कर्मरहित, शरीररहित, सर्वव्यापक, सृष्टिका कर्त्ता, एक ईश्वर इसलोकमें नही है. क्योंकि, पूर्वोक्त विशेषणोंवाला ईश्वर प्रमासें सिद्ध नही होता है. ॥ २९ ॥
अवगाहाकृतिरूपैः स्थैर्यभावेन शाश्वते लोके ॥ कृतकत्वमनित्यत्वं मेर्वादीनां न संवहति ॥ ३० ॥
व्याख्या -- अवगाहकरके, आकृतिकरके, रूपकरके, स्थैर्य भावकरके इस शाश्वते लोकमें कृतकत्वपणा, अनित्यपणा, मेरुआदिपदार्थोकों नही प्राप्त होता है. " तेषां शाश्वतत्वान्नित्यत्वाच्च ' " तिनोंकों शाश्वते और प्रवाहरूपसें नित्य होनेसें ॥ ३० ॥
गुणवृद्धिहानिचित्रात् क्वचिन्महान् कृतो न लोकश्च ॥ इति सर्वमिदं प्राहुः त्रिष्वपि लोकेषु सर्वविदः ॥ ३१ ॥ व्याख्या -- गुणवृद्धिहानिके विचित्र होनेसें समय २ उत्पादविनाशा - दिके होनेसें, कोइ जगे भी महान्का करा हुआ लोक नही है. ऐसें सर्व यह तीनों लोकमें, तीनोंही कालमें, सर्वज्ञ भगवान् कहते है. ॥ ३१ ॥
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