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________________ १७४ तत्त्वनिणयप्रासाद. णोंसें हो रही है; और अमृत देहरहित ईश्वर सृष्टिका कर्ता किसीप्रमाणसेंभी सिद्ध नहीं होता है, इसवास्ते जगत् ईश्वरका रचा हुआ नही है ॥ १५ । १६ । १७ । १८ । १९ । २० । २१ । २२ । २३ ॥ पूर्वपक्षः--जेकर ईश्वर जगत्का रचनेवाला नही, तो फेर इस जगत्की व्यवस्था कैसें माननी चाहिए ? उत्तरपक्षः-नानाप्रकारकी योनियोंमें संप्रतिकालमें अपने २ कारणोंसें जैसे जीवोंकी उत्पत्ति हो रही है, और काल स्वभाव नियतिकर्म उद्यम जड चैतन्यमें प्रेरणशक्तिद्वारा जैसें इस जगत्की व्यवस्था हो रही है, ऐसेंही नित्यप्रवाहसें अनादि अनंत सिद्ध है. जे लोक स्थितिके विधिके जाननेवाले सर्वज्ञ है, तिनका ऐसा कथन है. और युक्तिप्रमाणसेंभी ऐसाही सिद्ध होवे है. ॥ २४ ॥ ऐसें विचार करता थकां सृष्टिकी रचनामें विशेष कथन है, वे परस्परविरुद्ध है, ते सर्व ऊपर लिख दीखाए है. जैसे हरिहर विरंचि प्रमुख सरागी देवोंमें परमेश्वरपणा प्रमाणयुक्तिसें सिद्ध नहीं होता है, तैसेंही प्रमाणयुक्तिसें जगत् ईश्वरकृत सिद्ध नही होता है, इसवास्ते ये सृष्टिरचनाके कथन युक्तिविहीन है; तिस्सेही बुद्धिमानोंको त्यागने योग्य है.॥२५॥ मुक्तो वामुक्तो वास्ति तत्र मूर्तोंथ वा जगत्कर्ता ॥ सदसहापि करोति हि न युज्यते सर्वथाकरणम् ॥२६॥ व्याख्या-जगत्का कर्ता ईश्वर मुक्तरूप वा अमुक्तरूप, मूर्त वा अमुर्त्त, सत्रूप वा असत्रूप, किसीतरेंभी सिद्ध नहीं होता है. ॥ २६ ॥ मुक्तो न करोति जगन्न कर्मणा बध्यते विगतरागः ॥ रागादियुतः सतनुर्निबध्यते कर्मणावश्यम् ॥२७॥ व्याख्या-जो मुक्तरूप है, सो तो जगत्कों नही रचेगा; प्रयोजनाभावात्. और जो वीतराग है, सो कर्मबंधनोसें नही बंधाता है; जो रागसंयुक्त शरीरसहित है, सो अवश्यमेव कर्मोकरके बंधाता है. ॥ २७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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