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________________ पञ्चमस्तम्भः। १७३ प्रेतादिकोंने तिस ईश्वरका क्या बुरा करा है ? जिस्से तिनको अधमपणे उत्पन्न करे; और देवतायोंने क्या ईश्वरऊपर उपकार करा? जिस्से तिनकों उत्तमपणे उत्पन्न करे; असुरोंकों दुःखमें और देवतायोंकों सुखमें विनाही हेतु जोड दिए, क्या एही ईश्वरकी न्यायशीलता है ?। जेकर ईश्वर पक्षपातरहित, न्यायी, दयालु, सर्वसामर्थ्य है तो, सर्व लोकोंकों वित्त (धन,) कलत्र,पुत्रादिकरके तुल्य सुखी क्यों नही करे ? और किसवास्ते जन्म जरा मृत्युके पथिकलोक रच दिए ? जेकर तिस ईश्वरनेही लोक रचा है, तो फेर तिसका क्षय किसवास्ते करता है ? जेकर क्षयही करणा था तो जगत्की उत्पत्ति करणेकी क्या आवश्यकता थी? तिस जगत्के क्षय करणेसे ईश्वरकों किसगुणकी प्राप्ति हुई ? और तिसके रचनेसे क्या लाभ हुआ? और जीवोंकों जन्म देके दुःखी करनेसें तिस ईश्वरकों क्या लाभ हुआ ?। जैसें कुंभकार कुंभादि करता है, और फेर तिनकों भांगता है, तैसेही ईश्वर जीवानुगतशरीर रचता है, और भांगता है, तब तो वो ईश्वर बडाही निर्दय है, ऐसा सिद्ध होवेगा. । जगत्-संभव दुःखोंका करनेवाला ( देनेवाला ), और जगद्वासीयोंका विनाहीकारण सदा वैरी (शत्रु,) ऐसे अतिपापरूप ईश्वरके शरणकों कौन बुद्धिमान् कल्याणार्थी अपने कल्याणकेवास्ते प्राप्त होवे ? अपितु कोइ नही.। कितनेक लोकोंकी ऐसी बुद्धि होती है कि, अपने करे जगत्के क्षय करणेवाले तिस ईश्वरकों कर्मबंध नहीं है, यह कथन उनोंका अज्ञान विजूंभित है; क्या निर्दयचित्तवाले पिताकों पुत्रके बध करनेमें पापका बंध नहीं होता है ? अवश्यमेव होता है; ऐसेंही ईश्वरकोंभी जगत् संहार करते हुए अवश्यमेव पापका बंध होवे है.। जगत्की उत्पत्ति प्रथम जेकर शरीरवाले कर्तीने करी है तो, कैसें तिसकीतरें अधुना संप्रतिकालमें जगत्की उत्पत्ति देहवाले कर्त्तासें होती हुई नही दीख पडती है? तात्पर्य यह है कि, प्रथम जेकर सृष्टि देहधारी ईश्वरने करी है तो, संप्रतिकालमें जो नवीननवीन सृष्टि उत्पन्न हो रही है, तिसकाभी का देहधारी ईश्वर हमकों दीखना चाहिए, परंतु दीखता नही है; और सृष्टि अपने कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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