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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
अपार्थकम् - पूर्वापरसंबंधकरके रहित, जैसें दशदाडिम, छपूडे, कुंडा, अजाचर्म, पललपिंड, कीटिके ! चल, इत्यादि - ४ |
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छलम्म-अर्थ विकल्प उपपत्तिकरके वचनका विघात करना, यथा " नवकंबलो देवदत्त" इत्यादि - ५ ।
हिलम् - द्रोहस्वभाववाला - यथा - " यस्य बुद्धिर्न लिप्येत हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पंकेन नासौ पापेन युज्यते " ॥ जैसे पंककरके आकाश नहीं लिपता है, तैसे जिसकी बुद्धि इस सारे जगत्को मारके लिपती नहीं है, सो पापके साथ जुडता नहीं है, अर्थात् उसको कर्मका बंध पाप नहीं लगता है, इत्यादि- -अथवा दुहिलं-कलुषं, जिस वचनकरके पुण्य पाप एकसदृश होजावे, यथा “ एतावानेव लोकोयं यावानिन्द्रिय गोचरः " - जितना इंद्रियोंद्वारा दीखता है इतनाहीमात्र यह लोक हैं, परं देवलोक नरकादि कुछ नहीं है. इत्यादि - ६ ।
निःसारम् - परिफल्गु, निष्फल, वेदवचनवत् -७ । अधिकम्-वर्णादिकों करके अधिक जो वचन होवे, सो अधिक - ८ | ऊनम्-वर्णादिकोंकरके हीन - ९ ।
अथवा हेतु उदाहरणोंकरके जो अधिक वा हीन होवे, सो अधिक ऊन, वचन जाणना. जैसें शब्द अनित्य है, कृतकत्व और प्रयत्नानंतरीयकत्व होनेसें, घटपटवत्. यहां एकहेतु और एकदृष्टांत अधिक है. तथा शब्द अनित्य है, घटवत्. इस वचनमें हेतुके न होनेसें; और शब्द अनित्य है, कृतकत्व होनेसें, इसमें दृष्टांतके न होनेसें ऊन है. इत्यादि - ८ ।९ ।
पुनरुक्तम् - अनुवादकों वर्जके शब्द, और अर्थका जो पुनः कहना, सो पुनरुक्त. पुनरुक्त तीन प्रकारका होता है, तथा हि-शब्दपुनरुक्त, यथा sasasति १, अर्थपुनरुक्त, यथा इंद्रः शक्रइति २ अर्थसें आपन्न ( प्राप्त ) सिद्धकों, जो स्वशब्द करके कहना, सो अर्थापन्न पुनरुक्त, यथा इंद्रियांकरकेप्रफुल्लित बलवान् मोटा देवदत्त दिनमें नहीं खाता है, यहां अर्थापनसे सिद्ध है कि, रात्रिमें खाता है, अन्यथा पीनत्वाद्यसंभवात्. तहां जो कहे कि, दिनमें नहीं खाता है, रात्रिमें खाता है, यह पुनरुक्त जानना ३-१० ।
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